Saturday, April 1, 2023
विवान सुंदरम से वेदप्रकाश भारद्वाज की बातचीत
विवान सुंदरम से वेदप्रकाश भारद्वाज की बातचीत
(विवान सुंदरम से बातचीत 2005 व 2006 में दो बार में हुई थी जिसके कुछ अंश यहां दिये जा रहे हैं जो उनकी कला को समझने में सहायक हो सकते हैं। ललित कला अकादेमी की एक किताब कलाएं आसपास के लिए यह बातचीत की गई थी जो पुस्तक में लेख के रुप में शामिल है। इस पुस्तक का संपादन वरिष्ठ कला आलोचक व कवि विनोद भारद्वाज ने किया था। मैं इस पुस्तक का सह संपादक था।)
एक बार आपने पाब्लो नेरुदा की कविताओं पर पेंटिंग बनायी थीं। उसके पीछे क्या प्रेरणा थी और बाद में आपने उस तरह का काम क्यों नहीं किया? क्या दो कला माध्यमों में कोई संबंध होता है?
कविताओं पर पेंटिंग बनाने का मामला एकदम अलग होता है। बहुत पहले करीब तीस साल पहले अपने शुरूआती दौर में मैंने पाब्लो नेरुदा की कविताओं पर कुछ पेंटिंग बनायी थीं। उसके बाद उस तरह का काम नहीं किया। इसलिए नहीं कि मैं कविताओं से अलग हो गया। बस उस तरह का काम फिर करने की इच्छा ही नहीं हुई। बाद में तो मैं इंस्टालेशन की तरफ मुड़ गया।
पेंटिंग, फोटोमोंटाज फिर इंस्टालेशन और उसके बाद फिल्म, एक कला माध्यम से दूसरे में जाने की आवश्यकता क्यों हुई और उनके अनुभव कैसे रहे?
पेंटिंग और इंस्टालेशन के प्रति जो मेरा रुझान है, वह सहज ही फिल्म से जुड़ जाता है। जब मैं लंदन में स्लाड स्कूल में कला के उच्च अध्ययन के लिए गया तो वहां पेंटिंग के साथ विकल्प के रूप में दो विषय हमारे सामने थे, एक कला इतिहास का और दूसरा फिल्म इतिहास का। मैंने फिल्म इतिहास को चुना। उस समय हम प्रति सप्ताह चार-पांच फिल्म देखते थे। उसी समय से मेरी फिल्मों में रुचि बढ़ती चली गयी। दरअसल फिल्म एक ऐसा माध्यम है जिसमें आप एक कथानक को पूर्ण रूप से प्रस्तुत कर सकते हैं। इसके विपरीत पेंटिंग में आप पूरे कथानक को एक पेंटिंग में प्रस्तुत नहीं कर सकते। हां इंस्टालेशन में एक हद तक यह किया जा सकता है। लंदन से लौटने के बाद 1970 के आसपास मैं उस समय के कुछ युवा प्रयोगधर्मी फिल्मकारों के संपर्क में आया, जैसे मणि कौल, कुमार शाहनी आदि। कुमार शाहनी से मेरा घनिष्ठ संबंध रहा। उन्होंने मुझे काफी प्रभावित भी किया। करीब दस-बारह साल पहले की बात है, कुमार शाहनी ने बताया कि वे अमृता शेरगिल पर एक फिल्म बनाना चाहते हैं। उस समय मैंने फिल्म की पटकथा लिखने से शूटिंग के लिए जगह चुनने तक के काम में उनकी मदद की थी। तो एक तरह से फिल्मों के साथ मेरा संबंध शुरू से ही रहा है। इसीलिए मेरी पेंटिंग का भी फिल्मों से एक संबंध बनता चला गया। उनमें फिल्मों के कुछ तत्व इस रूप में आते गये कि उनके माध्यम से मैं एक छोटे कथानक को पूर्ण रूप में प्रस्तुत करने लगा। यह सही है कि यह काम फिल्म के माध्यम से अधिक प्रभावी तरीके से किया जा सकता है परंतु पेंटिंग के माध्यम से भी किया जा सकता है। इस तरह फिल्म और पेंटिंग में एक संबंध बनता है। (इसके साथ ही फिल्म और पेंटिंग दोनों ही दृश्य माध्यम हैं, दोनों में देखना प्रमुख होता है। आप एक फिल्म देखते हैं तो उसमें एक कहानी होती है, कुछ चरित्र होते हैं, उनका संघर्ष होता है। एक पेंटिंग में भी यह हो सकता है। बहुत से कलाकारों के काम में यह देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए हम हुसैन को या ए. रामचंद्रन के काम को देखें तो उनमें एक तरह का कहानी तत्व मिलता है। उनमें पात्रो -स्थितियों का संघर्ष मिलता है। उनमें ऐसे चरित्र मिलते हैं जो एक धरातल पर वास्तविक जीवन के लगते हैं तो दूसरे धरातल पर वे किन्हीं आदर्श या काल्पनिक स्थितियों में जीते दिखाई देते हैं, जैसा कि फिल्मों में होता है। तो इस तरह फिल्म और पेंटिंग एक तरह से बहुत निकट का रिश्ता रखती हैं।) फिल्म और चित्रकला में क्या रिश्ता हो सकता है या फिल्मों का मेरी कला पर क्या असर हुआ, इसे मेरे फोटोमोंटाज वाले काम के माध्यम से भी समझा जा सकता है। समय और स्थान को (स्पेस एंड टाइम) को पेंटिंग में भी व्यक्त किया जा सकता है और फिल्म में भी। एक योजना पर मैंने काम किया था जिसे नाम दिया था "रीटेक ऑफ अमृता'। उसमें अमृता शेर गिल के पिता और मेरे नाना उमराव सिंह शेर गिल के खींचे पुराने पारिवारिक फोटोग्राफ को मैंने कंप्यूटर पर फोटोशॉप प्रोग्राम के माध्यम से नया रूप दिया था। अमृता शेर गिल की एक पेंटिंग में मैंने उनका फोटो जोड़कर नया काम किया था। इसका नाम "रीटेक ऑफ अमृता' इसलिए रखा गया था क्योंकि जिस तरह किसी फिल्म में दृश्य को फिल्माते समय "रीटेक' किया जाता है, उसी प्रकार मैंने पुराने पारिवारिक फोटोग्राफों को रीटेक किया था, उन्हें नया बनाया था। यह भी मेरी कला का एक फिल्मी संदर्भ कहा जा सकता है। वैसे देखें तो यह जो फोटोग्राफ होते हैं, वे स्थिर जीवन की फिल्म ही होते हैं। उसमें होता क्या है? मान लीजिए कि एक फोटाग्राफ में एक कमरे में एक औरत खड़ी है। उसके चेहरे के भावों से, उसकी शारीरिक भंगिमाओं से पता चलता है कि पहले कुछ हुआ है, उसके दिमाग में कुछ चल रहा है या आगे कुछ होने वाला है। इस तरह फोटोग्राफ भी एक तरह की फिल्म होते हैं। मेरे पास कुछ पुराने पारिवारिक फोटो थे जिन पर मैं डिजिटल माध्यम से काम कर एक तरह से अतीत में गया और उसे वर्तमान का हिस्सा बना दिया। वह समय और तारीख की सीमाओं से बाहर आ गये। उन्हें देखने में लगता था कि पुराने हैं पर उनमें कुछ बदल गया है। "रीटेक ऑफ अमृता' के बाद मैंने पुराने फोटोग्राफ्स से एक वीडियो इंस्टालेशन बनाया था "इंदिराज पियानो'। इंदिरा मेरी मां थीं जो अमृता शेर गिल की छोटी बहन थीं। इसमें मैंने उस तकनीक का इस्तेमाल किया था जिसके माध्यम से हम पुराने फोटोग्राफ्स को भी एनिमेट कर सकते हैं। इस तरह विभिन्न कला माध्यमों से, फिल्मों से और नयी-नयी तकनीक से भी मेरा जुड़ाव लगातार बना रहा है।
अभिव्यक्ति के स्तर पर पेंटिंग, इंस्टालेशन और फिल्म में आप क्या अंतर पाते हैं?
पेंटिंग, इंस्टालेशन और फिल्म में बहुत फर्क है। ये एकदम अलग चीजें हैं। पेंटिंग में आप एक फ्रेम में अपनी बात कह सकते हैं। उसमें आप एक तरह से एक सीमा में बंध जाते हैं। उससे बाहर न तो बनाने वाला कुछ सोच सकता है और न ही देखने वाला। एक दर्शक उसमें वही देखता है जो एक फ्रेम में प्रस्तुत किया गया है। आपको उसके बाहर सोचना भी नहीं चाहिए। एक पेंटिंग में एक कहानी हो सकती है परंतु उसमें सारा अनुभव एक फ्रेम में होता है। उसके बाहर कुछ नहीं होता। अभिव्यक्ति के स्तर पर इंस्टालेशन पेंटिंग से एकदम अलग होता है। उसमें अनुभव स्थानांतरित हो जाता है, बदलता रहता है क्योंकि उसमें कोई फ्रेम नहीं होता। इसीलिए इंस्टालेशन भी मुझे एक तरह से फिल्मी अनुभव लगता है। इंस्टालेशन में जो फार्म होता है वह स्पेस में होता है, और उसके और अंदर तक जाता है। वह बहुत कुछ फिल्म की तरह ही होता है जिसमें एक ही फ्रेम में या एक ही पहलू से सब कुछ दिखाई नहीं देता। जब आप इंस्टालेशन के आसपास चलेंगे तो हर दिशा से आपको एक नया अनुभव प्राप्त होगा, एक नया अर्थ मिलेगा। यह पेंटिंग में नहीं होता, और सामान्यत: शिल्प में भी नहीं होता, क्योंकि उसकी भी एक सीमा होती है। जैसे मैंने विक्टोरिया मेमोरियल दरबार हॉल में एक बहुत बड़ा इंस्टालेशन बनाया था "स्ट्रक्चर ऑफ मेमोरी : माडर्न बंगाल' जिसमें बहुत सारी चीजों का इस्तेमाल किया था। उसमें दरबार हॉल में एक तरफ से जाओ तो कुछ मिलेगा, दूसरी तरफ से कुछ और, कुछ दिखेगा-कुछ नहीं दिखेगा। इसे कह सकते हैं कि एक स्थान की सक्रियता से कुछ खोजना। उसमें एक तरह का नाटक भी है, और बहुत सी चीजें, कुछ सामान, पेंटिंग, शिल्प, वीडियो, बहुत कुछ उसमें आपको मिल सकता है। मेरी कला में फिल्म वीडियो इंस्टालेशन के रूप में भी आती है। वीडियो इंस्टालेशन में मैंने एक कमरे में तीन-चार प्रोजेक्टरों के माध्यम से अलग-अलग दीवारों पर अलग-अलग छवियों को प्रस्तुत किया था। वे एक दूसरे से असंबद्ध हो सकती हैं, और हो सकता है उनमें किसी तरह का संबंध हो। इस तरह इंस्टालेशन और फिल्म के बीच एक संबंध बनता है। लेकिन एक अलग स्तर पर इन दोनों में अंतर भी होता है। एक इंस्टालेशन में आप चाहें तो एक बार में केवल उसका एक ही पहलू देखें और बाकी को छोड़ दें तब भी आपको पूरा अर्थ मिलेगा। फिल्म के साथ यह नहीं हो सकता। आपको उसको पूरा ही देखना होता है। इसी प्रकार आप चाहें तो किसी इंस्टालेशन को, और पेंटिंग को भी, दस मिनट के लिए देखें या दो घंटे के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। इंस्टालेशन आपको एक तरह से समय के बंधन से मुक्त करता है जबकि फिल्म आपको बांधती है। फिल्म में उसके पूर्ण अर्थ तक पहुंचने के लिए आपको उसको पूरे समय तक देखना होता है, जितने समय की वह है। यह एक तरह का बंधन हुआ जबकि इंस्टालेशन आपको समय के बंधन से मुक्त रखता है। आप उसे जितने समय तक चाहें देखें, उसके अर्थ तक पहुंचने में समय बाधक नहीं होता। इसके अलावा आपको एक फिल्म को शुरू से देखना होता है। यह नहीं हो सकता कि आप फिल्म को अंत से देखना शुरू करें, या बीच से शुरू कर दें। इसके विपरीत इंस्टालेशन में आप चाहें तो उसे अंत से भी देखना शुरू कर सकते हैं या बीच से भी, यह भी जरूरी नहीं कि आप उसे पूरा देखें ही। वह अपने एक हिस्से का भी पूरा अर्थ रखता है। यह फिल्म के साथ संभव नहीं होता। वीडियो इंस्टालेशन में भी यह सुविधा होती है कि आप चाहे जितने समय तक, चाहे जितने हिस्से को देखने और उसके अर्थ तक पहुंचने के लिए स्वतंत्र होते हैं।
आपकी कला जीवन के बहुत निकट है, पर आम जनजीवन से या दूसरे शब्दों में कहें तो आम आदमी तक पहुंच नहीं पाती। एक तरह का संप्रेषणीयता का संकट उसके साथ बना रहता है। इसका क्या कारण है?
जहां तक आम आदमी तक पहुंचने की बात है तो आप कह सकते हैं कि कलाकार की थोड़ी-बहुत जिम्मेदारी होती है इस संदर्भ में, परंतु इसके लिए केवल कलाकार ही जिम्मेदार नहीं हो सकता। कुछ जिम्मेदारी देखने वालों की भी होती है। कला के साथ संवाद करने के लिए कई चीजें जरूरी हो जाती हैं, जैसे आपका अपना अनुभव, अंतर्ज्ञान, समझ, जो धीरे-धीरे आती हैं। आम आदमी को भी कला तक पहुंचना होता है। कहा जाता है कि कला के दर्शक धीरे-धीरे बढ़ते हैं। उनकी समझ धीरे-धीरे विकसित होती है। वर्तमान समय में कला और फिल्म के दर्शकों की तुलना नहीं की जा सकती। एक फिल्म के दर्शक को बहुत अधिक सजग, समझदार होना जरूरी नहीं है परंतु कला के लिए है। पश्चिम में जरूर अलग स्थिति है जहां कला संस्थानों और संग्रहालयों का इतना अधिक विकास हो चुका है कि वे एक तरह से दर्शकों को कला-सजग बनाने का काम करते हैं। हमारे देश में यह अभी तक हो नहीं पाया है। हमारे यहां कलाकारों को अपने दर्शक खुद बनाने पड़ते हैं। इसमें मीडिया जरूर कुछ मदद करता है, कलाकारों और कला प्रदर्शनियों के बारे में खबरें-फीचर छापकर। कला के दर्शक धीरे-धीरे बढ़ते हैं, इसीलिए कई बार कलाकार कहते हैं कि यदि मेरे पास एक भी दर्शक है तो यह भी काफी सकारात्मक बात है।
आप साहित्य में किस विधा को अधिक पसंद करते हैं, और क्या आपकी कला पर साहित्य का कोई प्रभाव पड़ा है?
आजकल के बारे में तो कह नहीं सकता कि साहित्य का मेरी कला पर कोई सीधा प्रभाव पड़ा हो। फिल्म के साथ साहित्य का एक सीधा संबंध जरूर होता है, कहानी और पटकथा के स्तर पर। परंतु चित्रकला और साहित्य के बीच उस तरह का संबंध संभव नहीं होता।
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