Thursday, April 27, 2023
मीरा मुखर्जीः पहली महिला स्कल्पटर Meera Mukharjee: The first woman sculpture/ वेद प्रकाश भारद्वाज
भारतीय शिल्प कला में आधुनिकता का नवोन्मेष करने का श्रेय जिन कलाकारों को जाता है उनमें मीरा मुखर्जी का नाम अग्रणी है। मेटल कास्टिंग में तकनीकी कौशल के विकास के साथ ही ढोकरा कास्टिंग को आधुनिक शिल्पकला के साथ मिलाकर उन्होंने मेटल कास्टिंग को एक नई दिशा दिखाई थी। 1923 में जन्मी मीरा मुखर्जी का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। उस समय जब गिनती की महिला कलाकार थीं, मीरा ने सिर्फ पुरुषों का क्षेत्र माने जाने वाली शिल्पकला में काम करके यह साबित किया था कि स्त्रियां पुरुषों से किसी मामले में कम नहीं हैं। अपने शिल्पों में संगीतकारों, सामान्य व्यक्तियों और विशेषरूप से महिलाओं को उन्होंने अलग अलग स्थितियों में दिखाया। शिल्प में कल्पना और अमूर्तन की शुरुआत करने वाली वह प्रमुख कलाकार थीं। उनके जन्म शताब्दी वर्ष में आकार प्रकार गैलरी दिल्ली द्वारा उनकी एक प्रदर्शनी 27 अप्रैल से आयोजित की गई है। इस प्रदर्शनी में उनके ब्रांज शिल्पों के साथ ही टेराकोटा, वुड, मार्बल और सेरेमिक के काम शामिल हैं, साथ ही कागज पर उनके कई चित्र भी प्रदर्शित किये गये हैं। मीरा मुखर्जी की पहचान एक स्कल्पटर के रुप में है पर उन्होंने पेंटिंग भी की हैं, विशेषरुप से उन्होंने कागज पर काफी काम किये थे। शिल्प में भी उन्होंने अनेक माध्यमों में काम किया था।
मीरा मुखर्जी में न केवल पुरुषों के प्रभुत्व वाली शिल्पकला में अपनी जगह बनाई अपितु उन्होंने उस समय एक एक्टिविस्ट के रूप में आदिवासी कलाकारों के साथ काम भी किया। उन्होंने इस धारणा को तोड़ दिया था कि स्त्रियों के लिए पेंटिंग ही एकमात्र कला विधा है। शिल्पकला एक मर्दाना कला है जिसे कर पाना स्त्रियों के लिए संभव नहीं है। इसका एक बड़ा कारण शिल्प रचना में अधिक शारीरिक बल की आवश्यकता के साथ ही विभिन्न उपकरणों को चलाने का कौशल भी शामिल है जो स्त्रियों के लिए संभव नहीं है। मीरा मुखर्जी ने इसे पूरी तरह बदल कर रख दिया। दिल्ली में जब उन्होंने पॉलिटेक्निक में कला अध्ययन के दौरान शिल्प को भी एक विषय के रूप में लिया तो साथी विद्यार्थियों और शिक्षकों ने कहा भी कि वह शिल्प नहीं कर पाएंगीं। पेंटिंग अकेला व्यक्ति कर सकता है पर शिल्प में, विशेषरूप से मेटल में कलाकार को मॉडलिंग से लेकर कास्टिंग व फिनिशिंग तक में दूसरे सहायकों का सहयोग लेना पड़ता है जो मुख्यरूप से पुरुष ही होते हैं। उनसे काम लेना एक स्त्री के लिए मुश्किल होगा।
मीरा मुखर्जी 14 साल की उम्र में अबनींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित इंडियन सोसाइटी ऑफ ओरिएंटल आर्ट स्कूल में प्रवेश लिया था। वह कला के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहती थीं पर परिवार ने उनका विवाह कर दिया। विवाह के बाद परिवार की जिम्मेदारी ने उनके अंदर के कलाकार को कुछ समय के लिए पीछे धकेल दिया। पर वैवाहिक जीवन उन्हें रास नहीं आया और जल्दी ही उनका तलाक हो गया। उसके बाद वह दिल्ली आ गईं और दिल्ली पॉलिटेक्निक के कला विभाग में प्रवेश लिया। उन दिनों आर्ट कॉलेज पॉलिटेक्निक का ही एक विभाग था। वहां उन्होंने पेंटिंग से शुरुआत की पर पहले सेमेस्टर के बाद ही शिल्प का अध्ययन करने लगीं। 1947 में उन्होंने वहां से पेंटिंग्स, ग्राफिक्स और मूर्तिकला में डिप्लोमा प्राप्त किया।
वह खुद को दिल्ली पॉलिटेक्निक में दाखिला लेने के लिए चली गईं, जहाँ से उन्होंने वर्ष 1947 में पेंटिंग, ग्राफिक्स और मूर्तिकला में डिप्लोमा प्राप्त किया।
इसके बाद उन्हें म्यूनिख में अकादेमी डेर बिल्डेंडेन कुन्स्ट (एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स) में इंडो-जर्मन फैलोशिप मिली जिसने उनकी कला साधना को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। विदेश में दूसरे शिल्प कलाकारों से सम्पर्क के साथ ही विश्व की महान शिल्प कलाकृतियों को देखना, और मेटल स्कल्पचर कास्टिंग की पश्चिमी पद्धति को सीखना उनके लिए बड़ा काम आया, हालांकि उनकी मंजिल कुछ और ही थी। बस्तर के आदिवासी कलाकारों के सानिध्य ने उनकी शिल्प कला को वह आयाम दिया जो उनकी पहचान बन गया। यही नहीं, उन्होंने पारम्परिक आदिवासी शिल्पकला और आधुनिक शिल्पकला के बीच की दूरी को मिटाते हुए दोनों में एक नया रिश्ता स्थापित करने का काम भी किया। यह अलग बात है कि मीरा मुखर्जी के दोनों कलाओं के बीच की दूरी को मिटाने के काम को दूसरे कलाकारों का सहयोग नहीं मिला। आदिवासियों की छवियों को अपने शिल्पों में इस्तेमाल करने वाले आधुनिक कलाकारों ने कभी आदिवासी कलाकारों को स्वतंत्र रूप से स्थापित होने में कोई मदद नहीं की। यही कारण है कि आज भी डोकरा कास्टिंग को लोक एवं आदिवासी कला के दायरे से मुक्ति नहीं मिल पाई है जिसके लिए मीरा मुखर्जी ने प्रयास किया था।
मीरा मुखर्जी की कलात्मक अभिव्यक्ति के बारे में दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने खुद को केवल एक कला रूप तक सीमित नहीं रखा और पेंटिंग व ग्राफिक्स के साथ ही लेखन और शिक्षा को भी उन्होंने अपनी कला में शामिल किया। उन्होंने शुरुआत में बच्चों को पढ़ाने का काम किया पर बाद में बस्तर के साथ ही बिहार, राजस्थान आदि प्रदेशों के आदिवासी कलाकारों के बीच रहकर भी काम किया। वह नियमित रूप से डायरी लिखती थीं जिनमें उनकी कला प्रक्रिया व अनुभवों के साथ ही कला को लेकर उनकी जिज्ञासाएं और उनके सम्भावित जवाब भी होते थे।
शिल्प कला के प्रति अपने अत्यधिक प्रेम ने उन्हें इस कला के विशेष अध्ययन के लिए प्रेरित किया और पश्चिमी कला ने उन्हें एक नई दृष्टि भी दी पर जल्दी ही उन्हें लगने लगा कि उन्हें स्वअर्जित अनुभवों को प्राथमिकता देनी चाहिए। यहीं से उन्होंने अपनी कला में भारतीयता की खोज शुरू की जो डोकरा कास्टिंग से होते हुए आदिवासी शिल्प कला के सामाजिक व सांस्कृतिक स्रोतों तक पहुंचती है। इसकी मुख्य प्रेरणा उन्हें म्युनिख में उनके मार्गदर्शक रहे टोनी स्टैडलर रहे जिन्होंने मीरा मुखर्जी को अपनी कला की खोज यूरोप की बजाय अपने देश की स्थानीय परम्पराओं में खोजने के लिए कहा था। हालांकि यह आसान नहीं था क्योंकि उस समय ज्यादातर भारतीय कलाकार, जो यूरोपीय देशों में स्कॉलरशिप या दूसरे साधनों से गए, वह वहां की कला से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उससे मुक्त नहीं हो सके।
1957 में वह म्युनिख से भारत लौटीं। उसके बाद उन्होंने बंगाल के कुर्सेओंग में डाउहिल स्कूल में, और 1960 में प्रैट मेमोरियल स्कूल में कोलकाता में कला शिक्षिका के रूप में काम किया। उन्हीं दिनों उन्होंने पारम्परिक भारतीय मूर्तिशिल्प कला का अध्ययन शुरू किया। उन्हीं दिनों वह मध्यप्रदेश के बस्तर क्षेत्र में गईं जहां उनका परिचय घरुआं और मारालों आदिवासियों से और उनकी ढोकरा कास्टिंग तकनीक से हुआ। ढोकरा कास्टिंग को लॉस्ट वैक्स तकनीक कहा जाता है।
मीरा मुखर्जी ने ढोकरा कास्टिंग की तकनीक को सीखते हुए उसे अपने मेटल स्कल्पचर में शामिल किया। उन्होंने बाद में आदिवासी क्षेत्रों में ऐसे सेंटर बनाए जो आदिवासी कला के विकास में सहायक रहे। मीरा मुखर्जी को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने बंगाल की मेटल शिल्प कास्टिंग की तकनीक में बदलाव किए, साथ ही उस समय आकृति प्रधान शिल्पों में भी अमूर्तन का प्रयोग किया। इसके साथ ही उन्होंने एकल शिल्प की अवधारणा को भी तोड़ते हुए शिल्पों के समूह को एक कलाकृति के रूप में स्थापित करने के विचार को भी जन्म दिया। उनके शिल्पों में एकल आकॄतियाँ भी हैं पर बड़ी संख्या में ऐसे शिल्प भी हैं जिनमें अनेक आकॄतियाँ एक-दूसरे की पूरक के रूप में प्रयोग की गई हैं। इसकी प्रेरणा निश्चित ही आदिवासी जीवन में सामूहिक सामाजिकता बोध रहा होगा।
मीरा मुखर्जी की मूर्तियां दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों और कामों में लगे आम आदमी पर आधारित हैं। उनके विषयों में शामिल हैं, मछुआरे, बुनकर, सिलाई में लगी महिलाएं, मजदूर। प्रकृति, संगीत, नृत्य उनके कुछ दूसरे विषय रहे। स्त्री को केंद्र में रखकर उन्होंने अनेक काम किए। ढोकरा कास्टिंग की वजह से आकार में बहुत बड़े न होने के बाद भी उनके शिल्पों में मॉन्युमेंटल क्वालिटी मिलती है।
मीरा मुखर्जी ने 1960 में अपना पहला शो शुरू किया। उन्हें अपने कार्यों के लिए सकारात्मक पहचान मिली और उन्हें मेटलवर्क में मास्टर क्राफ्ट्समैन के राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने शुरू में मध्य प्रदेश में अपने शोध दौरे शुरू किए, जल्द ही उन्हें अपने शोध में सहायता के लिए एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया से दो साल का वजीफा मिला।
उन्हें मध्य भारत में धातु-कारीगरों की शिल्प प्रथाओं का दस्तवेजीकरण का श्रेय भी है। 1961 से 1964 तक, उन्होंने एएसआई में सीनियर रिसर्च फेलोशिप के रूप में काम किया और पूरे भारत और नेपाल में धातु-कारीगरों पर सर्वेक्षण करना जारी रखा। मध्य प्रदेश, पूर्व और दक्षिण के राज्यों के आदिवासी समाजों की शिल्पकला का उन्होंने विशेष अध्ययन किया। इसी दौरान वह प्रबाश सेन और कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसी 'जीवित परंपराओं' के प्रवर्तकों के निकट आईं जिससे उन्हें लोक व आदिवासी कलाओं को समझने में सहायता मिली। उनके देश भर में किए गए इस शोध का 1978 में भारत के धातु शिल्पकारों में मानव विज्ञान सर्वेक्षण के अंतर्गत प्रकाशित किया गया।
उन्हें 1992 में पद्मश्री सम्मान प्राप्त हुआ। इसके अलावा पश्चिम बंगाल के अबनींद्र पुरस्कार सहित अनेक सम्मान उन्हें मिले। भारत में लोक धातु शिल्प (1978), भारत में धातु शिल्प (1978) और भारत में धातु शिल्पकार (1979) उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment