Sunday, March 12, 2023
Form within a formless form : Art of Rajesh Srivastava
Ved Prakash Bhardwaj
There was once a conversation about abstract art with senior artist Jai Zharotia. He stated that no figurative painting can be created without the foundation of abstraction, and similarly, no abstract painting can be created without the foundation of shape. The saying meant that the intangible and tangible are both interdependent. Yesterday, on the afternoon of March 11, when I arrived at the Kohl Art show at Bikaner House and saw Rajesh Srivastava's paintings, I remembered Jai Zharotia's words. I've been following Rajeshji's work for over a decade and a half. His primary medium is oil on canvas. That's why he doesn't do much work. He starts a series and then works a lot.Recently, he started discussing Kabir and referring to one of his couplets 'Pathar Puje Hari Mile to Main Pujo Pahar', and said that he is working on this idea these days. I have also been working on Kabir's line 'Jhini Jhini Bini Chadariya'. The ideological side has been strong in Rajesh Srivastava's work from the beginning. He has an amazing ability to express any subject completely but in a symbolic form. This ability of his has come to the fore in new works.
The exhibition at Kohl Art includes both large canvases and smaller paintings. Some of the larger paintings are titled "I am a stone lady," but the smaller ones are untitled and depict a woman's shape. Rajesh Srivastava's art begins its journey of experience, feeling, and thought here.
The figure of a woman, or any human being, has been shaped like a stone in the paintings featured in this exhibition. It expresses that man has been turned to stone or forced to become stone, but its other side can also be found in Indian philosophy, the realisation of life in stone. There is also a contemporary context in which petrified sensibilities are a major source of concern. Here we're able to observe how Rajesh Srivastava's art takes on multiple interpretations.
वेद प्रकाश भारद्वाज
एक बार वरिष्ठ कलाकार जय झरोटिया से अमूर्त कला को लेकर चर्चा हो रही थी। उन्होंने कहा कि बिना अमूर्तन के आधार के कोई भी फ़िगरेटिव पेंटिंग नहीं बन सकती, इसी प्रकार बिना आकार का आधार लिए अमूर्त चित्र नहीं बन सकता। कहने का अर्थ यह था कि अमूर्त और मूर्त दोनों अन्योन्याश्रित है। कल 11 मार्च की दोपहर जब बीकानेर हाउस में कोहल आर्ट के शो में पहुंचा और राजेश श्रीवास्तव की पेंटिंग्स देखीं तो जय झरोटिया की बात याद आ गई। पिछले कोई एक-डेढ़ दशक से राजेशजी के काम देख रहा हूं। कैनवास पर ऑयल कलर उनका मुख्य माध्यम है। इसलिए वह बहुत ज्यादा काम नहीं करते हैं। वह एक सीरीज शुरू करते हैं तो फिर उसपर खूब काम करते हैं। पेंटिंग्स के साथ ही पढ़ना और कला पर चर्चा करना भी उन्हें पसंद है। ललित कला अकादेमी के गढ़ी केंद्र में उनसे लगभग रोज ही मुलाकात होती है।
पिछले दिनों उन्होंने कबीर की चर्चा शुरू की और उनके एक दोहे 'पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार' का जिक्र करते हुए कहा कि वह आजकल इसी विचार पर काम कर रहे हैं। कबीर की पंक्ति 'झीनी झीनी बीनी चदरिया' को लेकर मैं भी काम करता रहा हूं। राजेश श्रीवास्तव के काम में वैचारिक पक्ष शुरू से मजबूत रहा है। किसी भी विषय को सम्पूर्णता में पर प्रतीकात्मक रूप में अभिव्यक्त करने की उनमें अद्भुत क्षमता है। उनकी यह क्षमता नए कामों में और अधिक निखर कर सामने आई है।
कोहल आर्ट की प्रदर्शनी में बड़े आकार के कैनवासों के साथ ही छोटे आकार की पेंटिंग्स भी हैं। कुछ बड़े चित्रों का शीर्षक 'आय एम ए स्टोन लेडी' है पर छोटे चित्र शीर्षहीन प्रदर्शित हैं जबकि उनमें भी स्त्री के आकार का आभास होता है। यहीं से राजेश श्रीवास्तव की कला अनुभव, आभास और विचार की यात्रा शुरू करती है।
इस प्रदर्शनी में शामिल पेंटिंग्स को देखें तो स्त्री की, या किसी भी मनुष्य की आकृति को पत्थर की तरह का आकार दिया गया है। यह मनुष्य के पत्थर हो जाने या उसे पत्थर होने को मजबूर किए जाने की अभिव्यक्ति है। पर इसका एक दूसरा पक्ष भारतीय दर्शन में भी मिलता है, पाषाण में प्राण की प्रतीति। इसका एक संदर्भ एकदम वर्तमान में भी है जिसमें पाषाण होती संवेदनाएं एम बड़ी चिंता का कारण हैं। इस तरह से राजेश श्रीवास्तव की कला अनेकार्थी हो जाती है।
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