Sunday, June 25, 2023
एक संपूर्ण कलाकार गिरीश कर्नाड। लेखक वेद प्रकाश भारद्वाज
कृष्णा बाई एक अस्पताल में नर्स थीं। वहीं एक दिन उनकी मुलाकात डॉक्टर रघुनाथ कर्नाड से हुई। यह मुलाकात प्रेम में बदल गयी पर इस प्रेम की राह में रोड़ा बना समाज और उसकी परंपराएं। कृष्णा बाई उस समय विधवा थीं और एक विधवा की शादी समाज को स्वीकार नहीं थी। पर प्रेम करने वाले कहाँ समाज की परवाह करते हैं। पांच साल तक उनका संघर्ष चलता रहा, और पांच साल बाद वह शादी के बंधन में बंध गये। यह कहानी है गिरीश कर्नाड के माता-पिता की। ऐसी फिल्मी कहानी वाले माता-पिता का बेटा आगे चलकर खुद भी नाट्य लेखक, कवि, अभिनेता, फिल्म निर्देशक और पटकथा लेखक के रूप में मशहूर हुआ, इसमें कोई अनहोनी नहीं है। गिरीश कर्नाड अपने माता-पिता की तीसरी संतान थे। 19 मई, 1938 को महाराष्ट्र (उस समय बॉम्बे प्रेसिडेंसी) के माथेरान में हुआ। बचपन से ही गिरीश ने रंगमंच की राह पकड़ ली थी। वह उस समय घुमंतु नाटक मंडलियों के साथ काम करने लगे थे।
गिरीश कर्नाड का परिवार बाद में धारवाड, कर्नाटक चला गया। वहीं उनकी उच्च शिक्षा हुई। गणित और सांख्यिकी में स्नातक करने के बाद वह 1960 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ने चले गये। वहां से उन्होंने दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र में मास्टर डिग्री प्राप्त की। पर इस बीच वह एक सशक्त नाटक लेखक के रूप में स्थापित हो चुके थे। 1961 में आये उनके नाटक ययाति ने उन्हें मशहूर कर दिया था। फिर 1964 में आया उनका नाटक तुगलक जो आधुनिक नाटक लेखन का मानक बन गया। इंग्लैंड से लौटकर उन्होंने चैन्नई में ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस में नौकरी कर ली। पर उनका मन तो लेखन और रंगमंच में लगता था। 1970 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्थानीय शौकिया थिएटर समूह, 'द मद्रास प्लेयर्स' में शामिल हो गए। नाटक लिखना और अभिनय करना ही अब उनका जीवन था।
1971 में उनका एक और नाटक 'हयवदन' प्रकाशित हुआ। यह थॉमस मान के 1940 के उपन्यास 'द ट्रांसपोज़्ड हेड्स' की थीम पर आधारित था। 1988 में, उनका एक और नाटक, 'नाग-मंडला' प्रकाशित हुआ जिसे कर्नाटक साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उनके अन्य नाटक अग्नि मट्टू माले (1995), ओडाकालु बिंबा (2006), मदुवे एल्बम (2006), फूल (2012) आदि हैं। नाटक तो उन्होंने कई लिखे पर 1970 में ही उनकी जिंदगी में एक नया मोड़ आया जब उन्हें कन्नड फिल्म संस्कार में अभिनय करने का मौका मिला।
उन्होंने वंश वृक्ष (1971) के साथ अपने निर्देशन की शुरुआत की जिसके लिए उन्हें बी. वी. कारंत के साथ सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। कर्नाड ने कन्नड़ और हिंदी में कई फिल्मों का निर्देशन किया, जिनमें गोधुली (1977) और उत्सव (1984) शामिल हैं। कर्नाड ने कई वृत्तचित्र बनाए हैं। उनकी कई फिल्मों और वृत्तचित्रों ने कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं।
उनकी कुछ प्रसिद्ध कन्नड़ फिल्मों में तब्बालियु नीनाडे मगने, ओन्डानोंडू कलादल्ली, चेलुवी और काडू और कनूर हेग्गादिती (1999) शामिल हैं। उनकी हिंदी फिल्मों में निशांत (1975), मंथन (1976), स्वामी (1977) और पुकार (2000) शामिल हैं। उन्होंने कई नागेश कुकुनूर की फ़िल्मों में भी अभिनय किया है, जिसकी शुरुआत इकबाल (2005) से हुई, जिसमें कर्नाड ने क्रिकेट कोच की भूमिका निभाई थी। इसके बाद डोर (2006), 8 x 10 तस्वीर (2009) और आशाएं (2010) आईं। उन्होंने यशराज फिल्म्स द्वारा निर्मित फिल्मों एक था टाइगर (2012) और इसके सीक्वल टाइगर जिंदा है (2017) में भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं।
वह 1974 से 1975 तक फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पूना के निदेशक रहे। 1987 में, वह शिकागो विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर बन कर चले गये। 1988 में वह 'संगीत नाटक अकादमी' के अध्यक्ष नियुक्त किये गये। 2000 से 2003 तक, उन्होंने नेहरू केंद्र के निदेशक और भारतीय उच्चायोग, लंदन में संस्कृति मंत्री के रूप में कार्य किया।
अपने नाटकों में कर्नाड ने अक्सर ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं के माध्यम से समकालीन मुद्दों को प्रस्तुत किया। उन्होंने स्वयं अपने नाटकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। उनके नाटकों का हिंदी सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद हुए। उनके नाटकों का इब्राहिम अल्काज़ी, बी. वी. कारंत, एलिक पदमसी, प्रसन्ना, अरविंद गौड़, सत्यदेव दुबे, विजया मेहता, श्यामानंद जालान, अमल अल्लाना और ज़फ़र मोहिउद्दीन जैसे निर्देशकों ने निर्देशित किया।
उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया गया और उन्होंने चार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते, जिनमें से तीन सर्वश्रेष्ठ निर्देशक - कन्नड़ के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और चौथा फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ पटकथा पुरस्कार हैं। वह 1991 में दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले "टर्निंग पॉइंट" नामक एक साप्ताहिक विज्ञान पत्रिका कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता थे।
गिरीश कर्नाड को अपने पहले ही नाटक से प्रशंसा व पुरस्कार मिलने लगे थे। उन्हें मिले दर्जनों में 1994 में मिला प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1998 में मिले ज्ञानपीठ पुरस्कार और कालिदास सम्मान शामिल हैं जो देश के सबसे अधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार माने जाते हैं।
संदर्भ
1.The life at play (Memories), Girish Karnad, Srinath Perur, 2021, Publisher: Fourth Estate.
2.अमर उजाला, 19 मई 2022
3.https://www.filmibeat.com/celebs/girish-karnad/biography.html
4.https://www.theguardian.com/stage/2019/jun/19/girish-karnad-obituary
5.नायक महानायक, नई दुनिया फिल्म विशेषांक, 1992
6.https://www.thehansindia.com/cinema/remembering-girish-karnad-at-lamakaan-537196?infinitescroll=1
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