Sunday, June 29, 2025

बी प्रभा की कलाः B. Prabha

बी प्रभा अपने स्टूडियो में चित्र रचना करते हुए।


"महिलाओं के आघात और त्रासदी को चित्रित करना मेरा लक्ष्य है"


    लंबी छरहरी देह, चेहरे पर कुछ उदासीनता और सिर पर या बगल में टोकरी, या मछलियों को पकड़ने वाले जाल के आगे जाती हुई स्त्री, यह बी प्रभा की कला की एक पहचान है। आभायुक्त रंगों के साथ एक निश्चित परिवेश में स्त्री की स्थिति को रेखांकित करती उनकी पेंटिंग्स ने उस दौर में स्त्री को, उसके संघर्ष, उसकी अस्मिता और पहचान को एक नया आयाम दिया जब ज्यादातर कलाकार स्त्री चित्रण में सिर्फ सौंदर्य की तलाश करते थे। अमृता शेरगिल की ही तरह उनकी कला तत्कालीन समाज और उसमें स्त्री की स्थिति का बयान कही जा सकती है। बी प्रभा का जन्म
1933 में महाराष्ट्र के नागपुर के पास बेला गांव में हुआ था। एक मध्यवर्गीय परिवार में पली-बढ़ी बी प्रभा ने नागपुर स्कूल ऑफ आर्ट से पढ़ाई की और सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई से पेंटिंग और म्यूरल पेंटिंग में डिप्लोमा हासिल किया। उन्होंने ज़्यादातर कैनवास पर तैल रंगों से काम किया।  शुरुआती दौर में उन्होंने भूदृश्यों की रचना अधिक की पर बाद में उन्होंने मानवीय जीवन को केंद्र में रखते हुए अपनी विशेष शैली विकसित की। उनकी शैली इतनी लोकप्रिय हुई कि बाद में अनेक कलाकारों ने उनका अनुसरण किया। उनकी पेंटिंग में परिदृश्य से लेकर सूखा, भूख और बेघर होने जैसे सामाजिक मुद्दों तक कई तरह के विषय शामिल हैं। सबसे बड़ी बात कि उन्होंने उस दौर में महिलाओं के श्रम और संघर्ष को रचा जबकि दूसरे कलाकारों के यहां महिलाओं का चित्रण उनके दैहिक सौंदर्य तक सीमित था।



बी प्रभा की विशिष्ट शैली 1956 में साथी कलाकार बी. विट्ठल से शादी के बाद विकसित हुई। बी विट्ठल चित्रकार और शिल्प कलाकार थे। वह अलंकारिक काम करते थे। उनसे शादी से पूर्व बी प्रभा भूदृश्य और अमूर्त चित्रण कर रही थीं। उसी वर्ष उन्होंने अपने पति के साथ अपनी पहली संयुक्त प्रदर्शनी आयोजित की। उन्होंने अपनी पेंटिंग्स का मुख्य विषय उस स्त्री और उसकी स्थिति को बनाना शुरु किया जो निम्न मध्यवर्ग की थी, जो आर्थिक क्रियाओं में शामिल थी, हालांकि उसका उसे की श्रेय नहीं दिया जाता था। उनके चित्रों में जो महिलाएं हैं, वह ज्यादातर ग्रामीण पृष्ठभूमि की हैं या मुंबई जैसे शहर के मछुआरों की बस्ती की हैं। वह उच्च वर्ग की सजी-धजी रूपवती नहीं हैं बल्कि कुछ श्यामल, आभूषणहीन, साधारण कपड़ों में काम कर रही महिलाएं हैं। इसे बी प्रभा की तत्कालीन समाज में स्त्री की स्थिति पर एक टिप्पणी के रूप में देखा गया। 1950-60 का दशक भारतीय समाज में कई तरह के बदलावों की शुरुआत का समय था। राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर मध्यवर्गीय वर्जनाएं टूट रही थीं तो निम्न वर्ग अपने अस्तित्व के लिए सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ने के लिए मन बना रहा था। यह वह समय था जब भारतीय साहित्य और सिनेमा में सामाजिक चेतना के स्वर प्रमुख हो रहे थे। साहित्य में प्रेमचंद, फणिश्वरनाथ रेणु, निराला, महादेवी आदि से लेकर फिल्मों में सत्यजीत रे, बिमल रॉय, राज कपूर, केदार शर्मा, ख्वाजा अहमद अब्बास, गुरुदत्त, चेतन आनंद, सुनील दत्त जैसे कलाकारों और फिल्मकारों ने एक नयी सामाजिक चेतना को स्वर दिया।  जाहिर है कि इसका प्रभाव दूसरे क्षेत्रों पर भी पड़ा जिसमें से एक कला भी है।



बहरहाल, बी प्रभा की कला को देखें तो हम पाते हैं कि उनकी पेंटिंग्स में किसी तरह का कला कौशल या चमत्कार नहीं है। उनके काम एकदम साधारण प्रतीत होते हैं क्योंकि वह सब थे भी साधारण जीवन के चित्र। कलात्मक प्रयोगों के स्थान पर उनमें हमें सहजता दिखाई देती है। उन्होंने प्रयोग किया पर वह मानवीय आकार के साथ किया। चूंकि उनकी स्त्रियां साधारण परिवारों की, और अक्सर कामकाजी थीं, इसलिए उनमें दैहिक सौंदर्य के प्रदर्शन की संभावना कम ही थी, हालांकि उनकी पेंटिंग्स में स्त्रियां बदसूरत हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। उनकी कला का सौंदर्य जीवन संघर्ष का सौंदर्य है।



बी. प्रभा ने 1959 और 1961 में दिल्ली की कुमार गैलरी में दो एकल शो आयोजित किए। 1993 में, मुंबई में उनकी एकल प्रदर्शनी श्रद्धांजलिउनके दिवंगत पति बी. विट्ठल को समर्पित थी। प्रभा के काम को 1996 में मुंबई में जहांगीर आर्ट गैलरी में समूह प्रदर्शनी समकालीन भारतीय चित्रकारमें शामिल किया गया था। वह 1958 में बॉम्बे स्टेट आर्ट प्रदर्शनी का भी हिस्सा थीं, जहां उन्हें प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 2001 में उनका निधन हो गया। 

डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज

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