सौ वर्ष के हो चुके कृष्ण खन्ना ऐसे
कलाकार हैं जिन्हें लोग उनकी विशेष शैली और विषयों के कारण जानते हैं, विशेषरूप से
उनकी बैंडवालों की पेंटिंग्स के लिए। करीब सात दशक से अधिक की अपनी कला यात्रा में
उन्होंने कई सीरिज में काम किया जिनमें विभाजन पर सीरिज भी शामिल है। इसके अलावा
समाज के हाशिये के लोगों को लेकर भी उन्होंने काफी काम किया। जब उनके समकालीन कई
कलाकार अमूर्त कला की तरफ बढ़ रहे थे, उन्होंने मानव आकारों पर अधिक भरोसा जताया।
यह अलग बात है कि उनके मानव आकारों में आकारिक विशिष्टता की जगह आकार का प्रभाव और
उसमें भी चेहरे के भावों तथा दैहिक भंगिमाओं का अधिक महत्व है। कोई कलाकार अपनी
विशेष रचनाओं और शैली के लिए पहचाना जाए, यह उसकी सबसे बड़ी ताकत होती है। चित्र
का कोई संदर्भ हो, उसमें कथात्मकता हो, या न हो, इसे लेकर उनके मन में कभी कोई
दुविधा नहीं रही। उन्हें हम आख्यानिक चित्रकार कह सकते हैं। उनकी पेंटिंग्स को
देखें तो उनमें मानवीय पीड़ा की झलक साफ देखी जा सकती है। कृष्ण खन्ना के यहां
हमें दो तरह की रंग योजना देखने को मिलती है, एक जिसमें वह बहुरंगी छवियां रचते
हैं और दूसरी जब वह किसी एक रगं, ज्यादातर भूरा रंग, लेकर चित्र की रचना करते हैं।
यह एक रंगी योजना हमें ज्यादातर उन चित्रों में मिलती है जिनमें वह अपने समय और
उसके मनुष्य की पीड़ा को व्यक्त कर रहे होते हैं। हालांकि बहुरंगी योजना में भी हम
देखते हैं कि चित्रों में उल्लास कम, अवसाद अधिक है। पिछले कुछ समय में उन्होंने
शिल्प रचना के क्षेत्र में भी काम किया है।
उनका जन्म 1925 में
अविभाजित भारत के लायलपुर में हुआ था। उनकी कला साधना उनके अपने जीवन के अनुभवों से
निर्देशित रही। विभाजन की भयावह स्मृतियां, विस्थापन का दर्द, बेदर होने का दर्द,
और इसके साथ ही अपने परिवेश में साधारण लोगों का जीवन संघर्ष उनकी कला रचना के
केंद्र रहे। उनकी कला स्मरण और विस्मरण के बीच विचरती कला है। इसमें जीवन का दर्द
अधिक है। विभाजन और विस्थापन को लेकर उन्होंने एक सीरिज रची है। इसमें उनके अपने
अनुभव थे जो एकदम सच्चे थे, सुने-सुनाए किस्से नहीं। उनके पास अभिव्यक्ति के दो
माध्यम उपलब्ध थे, एक साहित्य और दूसरा चित्रकला। उन्होंने कॉलेज में अंग्रेजी
साहित्य का अध्ययन किया था पर उन्हें लिखने से अधिक रचने में आनंद मिलता था। देश
के विभाजन के बाद उनका परिवार भारत आया। मुंबई में अपनी बैंक की नौकरी के दौरान वह
प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के सदस्यों के संपर्क में आए। उनकी कला यात्रा एक तरह
से यहीं से शुरु होती है। साठ के दशक में वह दिल्ली आ गये।
1940 के दशक के उत्तरार्ध से, उन्होंने बॉम्बे आर्ट सोसाइटी में अपने काम की प्रदर्शनी लगानी शुरू की। 1949
में उनकी एकल प्रदर्शनी के बाद 1951 में
जहांगीर आर्ट गैलरी में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के सदस्यों के साथ उनका काम
प्रदर्शित किया गया। 1960 के दशक में वह दिल्ली आ गए और खुद को कला को समर्पित कर
दिया। यहां उनकी मित्रता परमजीत सिंह, अर्पिता सिंह, रामकुमार, शंखो चौधुरी, मनजीत
बावा, हिम्मत शाह आदि से हुई। उन्होंने ललित कला अकादेमी के कला कुटीर, गढ़ी में
काम करना शुरु किया। उनकी मशहूर बैंडवालों की पेंटिंग्स का जन्म यहीं से हुआ जो आज
उनकी पहचान बन चुकी है। एक दिन कृष्ण खन्ना गढ़ी स्टूडियोज से बाहर निकले तो देखा
कि रास्ते में कोई बारात जा रही है। उसमें रंग-बिरंगे चमकदार कपड़े व टोपी पहले
बैंज वालों को देखकर उन्हें एक अलग तरह का अनुभव हुआ। खुशी के मौके पर अपने संगीत से
उस खुशी को और बढ़ा रहे बैंडवालों के चेहरों पर कोई खुशी नहीं थी। स्टूडियो लौटने
के बाद उन्होंने इसी विषय पर काम शुरु किया। यह पहली बार था जब किसी कलाकार ने
बैंडवालों जैसे साधारण लोगों के चित्र बनाना शुरु किया था। यहीं से उनकी कला में
रिक्शावाले, भिखारी और दूसरे ऐसे लोगों का प्रवेश हुआ। विभाजन की त्रासदी और
आख्यानिक चित्र अब पीछे छूट गये।
रूपक और धार्मिक प्रतीकवाद से कृष्ण का परिचय बचपन की स्मृति का हिस्सा है। जब उनके पिता 1932 में इंग्लैंड से डॉक्टरेट की पढ़ाई करके लौटे, तो वे अपने साथ दा विंची की द लास्ट सपर की एक प्रति लाए, जिसका उन्होंने गहन अध्ययन किया। उन्होंने गर्मियों की छुट्टियां फ्रांसिस्कन ब्रदर, जोसेफ गार्डनर के पादरी के घर बिताईं, जिन्होंने उन्हें बाइबिल का अध्ययन कराया। 1960 के दशक के उत्तरार्ध से, उन्होंने ईसा मसीह पर चित्रों की एक श्रृंखला बनाई, जो द लास्ट सपर और गार्डन एट गेथसेमेन से शुरू होती है और धीरे-धीरे बिट्रेयल, क्राइस्ट्स डिसेंट फ्रॉम क्रॉस, पिएटा और एम्मॉस में परिणत होती है। यह श्रृंखला न केवल इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान अपनी उपस्थिति के कारण महत्वपूर्ण है, बल्कि 1970 के दशक के कृष्ण खन्ना के अन्य कार्यों के साथ इसकी समानता के कारण भी है। 2010 में, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली में उनके कार्यों की एक पूर्वव्यापी प्रदर्शनी लगाई गई थी। उनकी अन्य एकल प्रदर्शनियाँ लंदन में 2005 और 2007 में; मुंबई में 2004; नई दिल्ली में 1994; और नई दिल्ली में 2001, 1966, 64, 60, 59 और 58 में आयोजित की गईं। उनकी कृतियाँ 2001 और 2002 में भारत और न्यूयॉर्क की कला दीर्घाओं में भी प्रदर्शित की गईं। 2011 में, भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया; 2004 में उन्हें भारत के राष्ट्रपति से ललित कला रत्न मिला; और 1997 में उन्हें अखिल भारतीय ललित कला एवं शिल्प समिति, नई दिल्ली से कला रत्न मिला।