डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज
हिंदी पत्रकारिता में दैनिक समाचार पत्रों के साथ
ही साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक पत्रिकाओं का भी अत्यधिक महत्व रहा है। एक समय था जब इस तरह
की पत्रिकाओं को दैनिक पत्रों का अगला चरण माना जाता था क्योंकि उनमें समाचार नहीं
होते थे बल्कि समाचारों पर आधारित वैचारिक लेख हुआ करते थे। शुरूआत में इन
पत्रिकाओं का केंद्र विचार ही होता था पर एक समय ऐसा भी आया जब कुछ साप्ताहिक
पत्रिकाओं ने विचार के साथ ही समाचार को अपनी विशेषता बना लिया। यह दौर था 1980 के दशक का। उससे पहले से ब्लीट्ज जैसे साप्ताहिक अखबार खबरों पर आधारित थे, खासतौर पर भंडाफोड़ खबरों पर, जिनमें से ज्यादातर आधारहीन भी होती थीं। हिंदी
पत्रकारिता में इस भंडाफोड़ पत्रकारिता के मुकाबले में खोजी पत्रकारिता की शुरूआत
इसी 80 के दशक में हुई। कोलकाता से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका रविवार इस दिशा में
एक सार्थक पहल कही जा सकती है। सुरेंद्र प्रताप सिंह, जो स्वयं एक रिपोर्टर थे, जब इसके संपादक नियुक्त हुए तो उन्होंने उसे एक ऐसी
पत्रिका में बदल दिया जो उस समय सबसे ज्यादा पसंद की जाने लगी थी। यहाँ तक कि उसकी
तर्ज पर माया जैसी पत्रिका ने अपना कलेवर बदला और कुछ नये साप्ताहिक अखबार
अस्तित्व में आये जो खोजी पत्रकारिता के आधार स्तंभ बने। चौथी दुनिया ऐसा ही एक
अखबार था। यहाँ तक कि दिनमान जैसी पत्रिका, जो अपने अलग वैचारिक और राजनीतिक विश्लेषण के लिए
जानी जाती थी, वह भी खोजी पत्रकारिता का हिस्सा बनी।
रविवार के पहले अंक मई 1977 से ही सुरेंद्र प्रताप
सिंह पत्रिका से सहायक संपादक के रूप में जुड़ चुके थे और अक्टूबर 1977 में उसके
संपादक भी बना दिये गये। यह वह समय था जब देश आपातकाल के अंधेरे से निकल कर नये
उजाले की तरफ बढ़ने को तैयार था। ऐसे समय में रविवार का प्रकाशन शुरू होना हिंदी
पत्रकारिता में नयी सुबह आने जैसा था। कुछ ही समय में उसने अपनी रिपोर्टां और
वैचारिक लेखों से हिंदी क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बना ली। और इसका श्रेय
सुरेंद्र प्रताप सिहं को ही दिया जा सकता था जो ‘एसपी’ के नाम से अधिक संबोधित किये जाते थे। बाद में जब वह नवभारत टाइम्स के संपादक
बने तो रविवार के संपादक उदयन शर्मा बने। संतोष भारती भी रविवार में रिपोर्टिंग
किया करते थे जो आगे चलकर चौथी दुनिया के संपादक हुए और उन्होंने रविवार वाली
पत्रकारिता को चौथी दुनिया में आगे बढ़ाया। बहरहाल, हम बात करें रविवार की तो यह
शायद पहली ऐसी पत्रिका थी जिसने ऐसी खोजी पत्रकारिता की नींव रखी जिसमें सनसनी
नहीं बल्कि तथ्यपरक गंभीर सूचना व विश्लेषण होता था। इस पत्रिका में छपी रपटों ने
कई नेताओं के राजनीतिक जीवन को ही समाप्त कर दिया। ऐसे ही एक नेता थे मध्यप्रदेश
विधानसभा के अध्यक्ष यज्ञदŸा शर्मा। उनके भूमि कब्जाने संबंधित भ्रष्टाचार को लेकर एक रिपोर्ट रविवार में
छपने के बाद हंगामा हो गया। मध्यप्रदेश सरकार ने रविवार के उस अंक की बिक्री पर
रोक लगा दी और उसकी प्रतियाँ जब्त कर ली गयीं। इसके बाद भी इस खबर को लेकर इतना
हंगामा हुआ कि यज्ञदत्त शर्मा को पद से त्यागपत्र देना पड़ा और उनका राजनीतिक जीवन
समाप्त हो गया। उन दिनों मैं इंदौर में रहता था जहाँ से यज्ञदत्त शर्मा विधायक थे।
मुझे याद है कि उस समय लोगों ने रविवार के उस अंक को खोज-खोज कर पढ़ा था। उसके बाद
तो कई और नेताओं के काले कारनामों का खुलासा हुआ।
रविवार सिर्फ अपनी खोजी पत्रकारिता के लिए ही नहीं
जाना गया बल्कि विश्लेषणात्मक समाचारों के लिए भी प्रतिष्ठित हुआ। कलकत्ता (अब
कोलकाता) से प्रकाशित इस पत्रिका ने एक तरफ जहाँ बिहार के कोयला माफिया पर सामग्री
प्रकाशित की वहीं पश्चिम बंगाल में वामपंथी श्रमिक संगठनों की आये दिन होने वाली
हड़ताल के कारण हजारों फैक्ट्रियों के बंद होने से फैली बेरोजगारी को लेकर भी आवाज
बुलंद की। इसके साथ ही उस समय के कद्दावर नेता लगातार उसके निशाने पर रहे। इसका
अर्थ यह नहीं कि रविवार सिर्फ खोजी पत्रकारिता को ही जगह देता था। उसमें साहित्य, फिल्म आदि के साथ ही समाज में हो रही सकारात्मक चीजों के लिए भी जगह होती थी।
फिल्म को लेकर तो उसने विशेषांक भी निकाले। समानांतर सिनेमा को लेकर भी उसने कई
बार लेख प्रकाशित किये।
सुरेंन्द्र प्रताप सिंह
रविवार की ही तरह इलाहाबाद से मित्र प्रकाशन की
पत्रिका माया थी जो राजनीतिक पत्रकारिता की दिशा में अच्छा काम कर रही थी। 1980 के दशक में खोजी और जनपक्षधर पत्रकारिता की दृष्टि से इन दोनों पत्रिकाओं का
महत्वपूर्ण स्थान था। माया में लगातार ऐसी रपट प्रकाशित होती रहती थीं जो राजनीतिक
और प्रशासनिक भ्रष्टाचार का खुलासा करती रहती थीं। इन पत्रिकाओं की लोकप्रियता ने
दैनिक समाचार पत्रों में खोजी पत्रकारिता को बढ़ावा दिया। अनेक छोटी स्थानीय
पत्रिकाओं को भी इससे नयी दिशा मिली। इसी दौर में साप्ताहिक अखबार चौथी दुनिया का
प्रकाशन शुरू हुआ जिसके संपादक संतोष भारतीय थे। चौथी दुनिया ने खोजी और वैचारिक
पत्रकारिता को आगे बढ़ाते हुए अनेक ऐसी खबरें प्रकाशित कीं जो चर्चित रहीं। ऐसी ही
एक रपट जैन मुनियों को लेकर थी जिसे लेकर काफी हंगामा हुआ। इस बीच विश्वनाथ प्रताप
सिंह कांग्रेस को छोड़कर अलग हुए और गैर कांग्रेसी विकल्प की बात फिर होने लगी। उस
समय भाजपा अपना आधार बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी। उस समय वीपी सिंह के साथ खड़े
होने वालों में ज्यादातर समाजवादी दल थे। ‘राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है’ नारा उन दिनों गूँज रहा था। 1990 आते-आते भारतीय राजनीति नई करवट लेने लगी थी। उस
परिवर्तन के दौर में खोजी पत्रकारिता को आगे बढ़ने का मौका मिला। उसी दौर में
दिल्ली से रिलायंस घराने ने संडे ऑबजर्वर नाम से हिंदी और अंग्रेजी में साप्ताहिक
अखबार शुरू किये। एक और अखबार ‘संडे मेल’ के नाम से सामने आया। दिनमान को पत्रिका से बदल कर
साप्ताहिक अखबार का रूप दे दिया गया और नाम रखा गया ‘दिनमान टाइम्स’।
इंडिया टूडे का अंग्रेजी में प्रकाशन 1975 से भी शुरू हो चुका था, बाद में
इसका हिंदी संस्करण शुरू हुआ। वीपी सिंह के अभ्युदय के साथ ही भारतीय राजनीति ने
करवट ली। भाजपा को जनाधार मिला और उसकी स्थिति ऐसी हो गयी कि वह निर्णायक ताकत बन
गयी। राजनीतिक स्थितियों में परिवर्तन का असर पत्रकारिता पर भी हुआ, खासकर साप्ताहिक पत्रिकाओं और अखबारों पर। हालांकि वीपी सिंह के सत्ता में आने
के बाद भी जमीनी स्थिति में बहुत फर्क नहीं आया था। गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसी स्थितियाँ यथावत थीं। दूसरी तरफ रामजन्म भूमि का मामला जोर
पकड़ रहा था, फिर भी पत्रकारिता में एक तरह का ठहराव आ गया। उसका विरोधी स्वर बंद नहीं हुआ
पर पहले जैसा धारदार भी नहीं रहा। पत्रकारिता भी एक तरह से दो खेमों में बंटी नज़र
आने लगी, एक कांग्रेस के पक्ष में तो दूसरी उसके विरोधियों के पक्ष में।
1990 का दशक एक तरफ नयी राजनीतिक धाराओं के जन्म का समय था तो दूसरी तरफ खोजी
पत्रकारिता की विदाई की बेला भी था। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की सत्ता
में वापसी, अर्थव्यवस्था का उदारीकरण, जनता दल की टूट, विपक्ष से जनता का मोहभंग कुछ ऐसे कारण रहे जो
पत्रकारिता में बदलाव का कारण बने। नयी उदार आर्थिक नीतियों का विरोध तो खूब हो
रहा था पर उस विरोध का कोई असर लोगों में देखने को नहीं मिल रहा था। पत्रकारिता
में जनता के पक्ष से आवाज़ उठ रही थी पर लगता था जैसे वह कुंद हो गयी है। इसी दौर
में धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान के साथ ही सारिका, माधुरी आदि पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हुआ। दिनमान टाइम्स भी ज्यादा दिन नहीं
चल सका। रविवार और माया बंद हो गयीं। चौथी दुनिया का प्रकाशन बंद हो गया। इनके साथ
ही ऐसी तमाम छोटी पत्रिकाएँ भी दम तोड़ गयीं जो खोजी और वैचारिक पत्रकारिता का आधार
थीं। संडे ऑबजर्वर और संडे मेल भी बाद में बंद हो गए। इस तरह 1990 का दशक खोजी और विचार प्रधान पत्रकारिता की विदाई का दशक साबित हुआ।
इस दौर में इंडिया टूडे एकमात्र पत्रिका रही जिसने
पत्रिकाओं के संसार को बचाये रखने का काम किया। यह अलग बात है कि उसमें न तो
रविवार वाली बात थी और न ही माया वाली। इंडिया टूडे 1975 से अंग्रेजी में प्रकाशित हो रही थी परंतु उसका हिंदी संस्करण बाद में शुरू
हुआ। यही नहीं उसका हिंदी संस्करण अंग्रेजी संस्करण का अनुवाद ही होता था। 1995 में आउटलुक का अंग्रेजी और हिंदी में प्रकाशन शुरू हुआ। अंग्रेजी में तो अनेक
पत्रिकाएँ प्रकाशित होती रहीं हैं परंतु हिंदी में पत्रिकाओं का संसार लगातार
सिकुड़ता गया है। वैसे आज हजारों पत्रिकाएँ निकल रही हैं परंतु उनमें से ज्यादातर
तो केवल नाम के लिए प्रकाशित हो रही हैं या फिर किसी खास राजनीतिक मकसद से
प्रकाशित हो रही हैं। उनके लिए जनता की पत्रकारिता का कोई अस्तित्व नहीं है। आज
अनेक पत्रिकाएँ राजनीतिक दलों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से पोषित हैं। इसीलिए वह जनता
के बीच अपनी कोई छाप नहीं बना पा रही हैं।
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