Sunday, May 5, 2019

हिंदी में खोजी पत्रकारिता का दौर investigative journalism in Hindi




                         डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज

हिंदी पत्रकारिता में दैनिक समाचार पत्रों के साथ ही साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक पत्रिकाओं का भी अत्यधिक महत्व रहा है। एक समय था जब इस तरह की पत्रिकाओं को दैनिक पत्रों का अगला चरण माना जाता था क्योंकि उनमें समाचार नहीं होते थे बल्कि समाचारों पर आधारित वैचारिक लेख हुआ करते थे। शुरूआत में इन पत्रिकाओं का केंद्र विचार ही होता था पर एक समय ऐसा भी आया जब कुछ साप्ताहिक पत्रिकाओं ने विचार के साथ ही समाचार को अपनी विशेषता बना लिया। यह दौर था 1980 के दशक का। उससे पहले से ब्लीट्ज जैसे साप्ताहिक अखबार खबरों पर आधारित थे, खासतौर पर भंडाफोड़ खबरों पर, जिनमें से ज्यादातर आधारहीन भी होती थीं। हिंदी पत्रकारिता में इस भंडाफोड़ पत्रकारिता के मुकाबले में खोजी पत्रकारिता की शुरूआत इसी 80 के दशक में हुई। कोलकाता से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका रविवार इस दिशा में एक सार्थक पहल कही जा सकती है। सुरेंद्र प्रताप सिंह, जो स्वयं एक रिपोर्टर थे, जब इसके संपादक नियुक्त हुए तो उन्होंने उसे एक ऐसी पत्रिका में बदल दिया जो उस समय सबसे ज्यादा पसंद की जाने लगी थी। यहाँ तक कि उसकी तर्ज पर माया जैसी पत्रिका ने अपना कलेवर बदला और कुछ नये साप्ताहिक अखबार अस्तित्व में आये जो खोजी पत्रकारिता के आधार स्तंभ बने। चौथी दुनिया ऐसा ही एक अखबार था। यहाँ तक कि दिनमान जैसी पत्रिका, जो अपने अलग वैचारिक और राजनीतिक विश्लेषण के लिए जानी जाती थी, वह भी खोजी पत्रकारिता का हिस्सा बनी।

रविवार के पहले अंक मई 1977 से ही सुरेंद्र प्रताप सिंह पत्रिका से सहायक संपादक के रूप में जुड़ चुके थे और अक्टूबर 1977 में उसके संपादक भी बना दिये गये। यह वह समय था जब देश आपातकाल के अंधेरे से निकल कर नये उजाले की तरफ बढ़ने को तैयार था। ऐसे समय में रविवार का प्रकाशन शुरू होना हिंदी पत्रकारिता में नयी सुबह आने जैसा था। कुछ ही समय में उसने अपनी रिपोर्टां और वैचारिक लेखों से हिंदी क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बना ली। और इसका श्रेय सुरेंद्र प्रताप सिहं को ही दिया जा सकता था जो एसपीके नाम से अधिक संबोधित किये जाते थे। बाद में जब वह नवभारत टाइम्स के संपादक बने तो रविवार के संपादक उदयन शर्मा बने। संतोष भारती भी रविवार में रिपोर्टिंग किया करते थे जो आगे चलकर चौथी दुनिया के संपादक हुए और उन्होंने रविवार वाली पत्रकारिता को चौथी दुनिया में आगे बढ़ाया। बहरहाल, हम बात करें रविवार की तो यह शायद पहली ऐसी पत्रिका थी जिसने ऐसी खोजी पत्रकारिता की नींव रखी जिसमें सनसनी नहीं बल्कि तथ्यपरक गंभीर सूचना व विश्लेषण होता था। इस पत्रिका में छपी रपटों ने कई नेताओं के राजनीतिक जीवन को ही समाप्त कर दिया। ऐसे ही एक नेता थे मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष यज्ञदŸा शर्मा। उनके भूमि कब्जाने संबंधित भ्रष्टाचार को लेकर एक रिपोर्ट रविवार में छपने के बाद हंगामा हो गया। मध्यप्रदेश सरकार ने रविवार के उस अंक की बिक्री पर रोक लगा दी और उसकी प्रतियाँ जब्त कर ली गयीं। इसके बाद भी इस खबर को लेकर इतना हंगामा हुआ कि यज्ञदत्त शर्मा को पद से त्यागपत्र देना पड़ा और उनका राजनीतिक जीवन समाप्त हो गया। उन दिनों मैं इंदौर में रहता था जहाँ से यज्ञदत्त शर्मा विधायक थे। मुझे याद है कि उस समय लोगों ने रविवार के उस अंक को खोज-खोज कर पढ़ा था। उसके बाद तो कई और नेताओं के काले कारनामों का खुलासा हुआ।



रविवार सिर्फ अपनी खोजी पत्रकारिता के लिए ही नहीं जाना गया बल्कि विश्लेषणात्मक समाचारों के लिए भी प्रतिष्ठित हुआ। कलकत्ता (अब कोलकाता) से प्रकाशित इस पत्रिका ने एक तरफ जहाँ बिहार के कोयला माफिया पर सामग्री प्रकाशित की वहीं पश्चिम बंगाल में वामपंथी श्रमिक संगठनों की आये दिन होने वाली हड़ताल के कारण हजारों फैक्ट्रियों के बंद होने से फैली बेरोजगारी को लेकर भी आवाज बुलंद की। इसके साथ ही उस समय के कद्दावर नेता लगातार उसके निशाने पर रहे। इसका अर्थ यह नहीं कि रविवार सिर्फ खोजी पत्रकारिता को ही जगह देता था। उसमें साहित्य, फिल्म आदि के साथ ही समाज में हो रही सकारात्मक चीजों के लिए भी जगह होती थी। फिल्म को लेकर तो उसने विशेषांक भी निकाले। समानांतर सिनेमा को लेकर भी उसने कई बार लेख प्रकाशित किये।


                            सुरेंन्द्र प्रताप सिंह

रविवार की ही तरह इलाहाबाद से मित्र प्रकाशन की पत्रिका माया थी जो राजनीतिक पत्रकारिता की दिशा में अच्छा काम कर रही थी। 1980 के दशक में खोजी और जनपक्षधर पत्रकारिता की दृष्टि से इन दोनों पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण स्थान था। माया में लगातार ऐसी रपट प्रकाशित होती रहती थीं जो राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार का खुलासा करती रहती थीं। इन पत्रिकाओं की लोकप्रियता ने दैनिक समाचार पत्रों में खोजी पत्रकारिता को बढ़ावा दिया। अनेक छोटी स्थानीय पत्रिकाओं को भी इससे नयी दिशा मिली। इसी दौर में साप्ताहिक अखबार चौथी दुनिया का प्रकाशन शुरू हुआ जिसके संपादक संतोष भारतीय थे। चौथी दुनिया ने खोजी और वैचारिक पत्रकारिता को आगे बढ़ाते हुए अनेक ऐसी खबरें प्रकाशित कीं जो चर्चित रहीं। ऐसी ही एक रपट जैन मुनियों को लेकर थी जिसे लेकर काफी हंगामा हुआ। इस बीच विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस को छोड़कर अलग हुए और गैर कांग्रेसी विकल्प की बात फिर होने लगी। उस समय भाजपा अपना आधार बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी। उस समय वीपी सिंह के साथ खड़े होने वालों में ज्यादातर समाजवादी दल थे। राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर हैनारा उन दिनों गूँज रहा था। 1990 आते-आते भारतीय राजनीति नई करवट लेने लगी थी। उस परिवर्तन के दौर में खोजी पत्रकारिता को आगे बढ़ने का मौका मिला। उसी दौर में दिल्ली से रिलायंस घराने ने संडे ऑबजर्वर नाम से हिंदी और अंग्रेजी में साप्ताहिक अखबार शुरू किये। एक और अखबार संडे मेलके नाम से सामने आया। दिनमान को पत्रिका से बदल कर साप्ताहिक अखबार का रूप दे दिया गया और नाम रखा गया दिनमान टाइम्स


इंडिया टूडे का अंग्रेजी में प्रकाशन 1975 से भी शुरू हो चुका था, बाद में इसका हिंदी संस्करण शुरू हुआ। वीपी सिंह के अभ्युदय के साथ ही भारतीय राजनीति ने करवट ली। भाजपा को जनाधार मिला और उसकी स्थिति ऐसी हो गयी कि वह निर्णायक ताकत बन गयी। राजनीतिक स्थितियों में परिवर्तन का असर पत्रकारिता पर भी हुआ, खासकर साप्ताहिक पत्रिकाओं और अखबारों पर। हालांकि वीपी सिंह के सत्ता में आने के बाद भी जमीनी स्थिति में बहुत फर्क नहीं आया था। गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसी स्थितियाँ यथावत थीं। दूसरी तरफ रामजन्म भूमि का मामला जोर पकड़ रहा था, फिर भी पत्रकारिता में एक तरह का ठहराव आ गया। उसका विरोधी स्वर बंद नहीं हुआ पर पहले जैसा धारदार भी नहीं रहा। पत्रकारिता भी एक तरह से दो खेमों में बंटी नज़र आने लगी, एक कांग्रेस के पक्ष में तो दूसरी उसके विरोधियों के पक्ष में।

1990 का दशक एक तरफ नयी राजनीतिक धाराओं के जन्म का समय था तो दूसरी तरफ खोजी पत्रकारिता की विदाई की बेला भी था। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी, अर्थव्यवस्था का उदारीकरण, जनता दल की टूट, विपक्ष से जनता का मोहभंग कुछ ऐसे कारण रहे जो पत्रकारिता में बदलाव का कारण बने। नयी उदार आर्थिक नीतियों का विरोध तो खूब हो रहा था पर उस विरोध का कोई असर लोगों में देखने को नहीं मिल रहा था। पत्रकारिता में जनता के पक्ष से आवाज़ उठ रही थी पर लगता था जैसे वह कुंद हो गयी है। इसी दौर में धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान के साथ ही सारिका, माधुरी आदि पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हुआ। दिनमान टाइम्स भी ज्यादा दिन नहीं चल सका। रविवार और माया बंद हो गयीं। चौथी दुनिया का प्रकाशन बंद हो गया। इनके साथ ही ऐसी तमाम छोटी पत्रिकाएँ भी दम तोड़ गयीं जो खोजी और वैचारिक पत्रकारिता का आधार थीं। संडे ऑबजर्वर और संडे मेल भी बाद में बंद हो गए। इस तरह 1990 का दशक खोजी और विचार प्रधान पत्रकारिता की विदाई का दशक साबित हुआ।

इस दौर में इंडिया टूडे एकमात्र पत्रिका रही जिसने पत्रिकाओं के संसार को बचाये रखने का काम किया। यह अलग बात है कि उसमें न तो रविवार वाली बात थी और न ही माया वाली। इंडिया टूडे 1975 से अंग्रेजी में प्रकाशित हो रही थी परंतु उसका हिंदी संस्करण बाद में शुरू हुआ। यही नहीं उसका हिंदी संस्करण अंग्रेजी संस्करण का अनुवाद ही होता था। 1995 में आउटलुक का अंग्रेजी और हिंदी में प्रकाशन शुरू हुआ। अंग्रेजी में तो अनेक पत्रिकाएँ प्रकाशित होती रहीं हैं परंतु हिंदी में पत्रिकाओं का संसार लगातार सिकुड़ता गया है। वैसे आज हजारों पत्रिकाएँ निकल रही हैं परंतु उनमें से ज्यादातर तो केवल नाम के लिए प्रकाशित हो रही हैं या फिर किसी खास राजनीतिक मकसद से प्रकाशित हो रही हैं। उनके लिए जनता की पत्रकारिता का कोई अस्तित्व नहीं है। आज अनेक पत्रिकाएँ राजनीतिक दलों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से पोषित हैं। इसीलिए वह जनता के बीच अपनी कोई छाप नहीं बना पा रही हैं।


Sunday, April 28, 2019

Defection in Indian politics



by Dr Ved Prakash Bhardwaj

Defection (move from one political party to another)  in Indian politics is not a new phenomenon. After the announcement of the recent elections, we have seen that many prominent leaders left a party and went to another. Today, if the Congress broke a BJP leader, the BJP has made any Congress leader its candidate and candidate. This game of 'Aya Ram-Gaya Ram' has been running for a long time. Initially, the angry leaders of Congress formed their own party but later instead of forming the party, they started joining the other party. The funny thing is that at times it is not known who the leader in which party is. The issue of Shatrughan Sinha, who recently left the BJP and joined the Congress is totally different. He has joined the Congress while his wife Poonam Sinha is contesting from Lucknow on the ticket of SP. It is being discussed which party their children will go to. If someone is returning home today, then one has complained of suffocation and the other has gone in other’s garden.
Bhajan Lal was considered the biggest player in this game of 'Aya Ram-Gaya Ram'. When the Janata Party came to power in 1977, Bhajan Lal was a part of it. In 1979, he became Chief Minister by defeating his own party's Devi Lal government in Haryana. But the bigger task was done in 1980 when Indira Gandhi came back to power. He shifted into the Congress with 40 MAL’s including total ministry.  The government's party's flag change; the rest will be the same, from the chief minister to the minister. This was an amazing event in the history of Indian politics. At that time Bhajan Lal was also a legislator, Gaya Lal, on whose name 'Aya Ram-Gaya Ram' jumala became. If Bhajan Lal was a superstar of the team-changing game then Gaya Lal was evergreen.
It is also recorded on the name of 'Aya Ram-Gaya Ram', which has changed the party three times in just nine hours. In 1967, some MLAs broke up with the Congress in Haryana and formed a huge Haryana party and formed the government by making United Front under the leadership of Rao Birendra Singh, a key leader of South Haryana. At that time, the MLA from Ferozabad constituency Hasanpur Assembly was independently elected. It is said that he first joined Congress and then joined the United Front in a few hours and then went to the Congress from there immediately. But the game was still the rest. Within a few hours, he returned to United Front again. Until Rao Birender Singh had said, 'Jai Ram has come now Ram.'
If the history of change of most parties will be written then it will be a leader from Bihar, Nagmani who has worked for twenty-two times party change in his political career. Even he came and visited many times in the same party. The record of party change was recorded in the political life of Nagmani in the twenty-year political year of 2014. After that, he changed the party many times. He has come to visit many times in BJP. Recently, he joined JD (U) except the Rashtriya Lok Samata Party (RLSP). At least there is no such major party in Bihar in which it can not be. Perhaps there are Left parties which they never stopped.
A similar incident is recorded in Uttar Pradesh's history when the BSP withdrew its support from the joint government of BJP and BSP in 1997. At that time Kalyan Singh was the Chief Minister. The BJP then proved its majority by breaking the BSP and Congress. At that time, the BJP was accused of buying opposition parties of the opposition parties, in which it was said that all the MLAs who were defamed were made ministers. In Uttarakhand, in 2016, the attempt was made to play a game of defection, but BJP did not get success in it. In Karnataka, whether it is Congress or BJP or any other party, they are playing a game of defection to get all the power. With the slogan of a stable government, the reason behind the stagnation of the minority government of BJP in 2014 in Jharkhand is also a defect.  At the same time, the BJP split the Jharkhand Vikas Morcha and recognized its six legislators as a separate party in the assembly and proved its majority. From then until February 2019, it was not decided that the going of the six MLAs is a division of the party or the party changed. Those MLAs said they had merged the party in BJP. After the decision of the Assembly Speaker in February 2019, it was assumed to be a division.
Trying to play a similar political drama The BJP did not get any majority in the 2018 assembly elections in Karnataka. At the center, the ruling BJP took Yeddyurappa to the chief minister and had to leave the chair without having the necessary majority. He tried to break the Congress and JDS legislators but did not succeed. In this case, the court went on, the court rejected the BJP's argument that the defection law does not apply to the MLAs elected before taking an oath.
In Goa also the BJP had made its own government in the same way. Of the 40 seats in the 2017 assembly elections, BJP got 13 seats, Congress got 17 seats. When the Manohar Parrikar of the ruling BJP in the center became the Chief Minister. A majority of people including the Maharashtrawadi Gomantak Party was proved to be the majority. At that time, Congress had accused BJP of buying and selling MLAs.
These are some big examples of the swamp of defection in Indian politics. Apart from these, the leaders of the day leave the party and go to another. Never get the ticket because of this, and never get the job of profit. It is the result of this politics of changing loyalty like clothes that now no party can be called pure or ideal. Even after this, such leaders succeed in winning the election, it is not surprising. Shatrughan Sinha, who is critical of the BJP till yesterday and criticizing the Congress, is today praising Congress and criticizing the BJP. That's just one example. In Indian politics, there is such 'Aaya Rama-Gaya Ram' that there is pressure on the fingers under the teeth after hearing about them.