Monday, April 29, 2024

चिंदु भागवतमः लोक नाटक/ डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज

लोक नाटकों की परंपरा में तेलंगाना का चिंदु भागवतम अपने कथानक के साथ ही प्रस्तुति के लिए भी विख्यात है। यक्षगान शैली की विशेषताओं वाला यह लोक नाटक अब गांवों की परिधि लांघकर शहरी रंगमंच तक पहुंच गया है। इसमें अब श्रीकृष्ण की लीलाओं के साथ ही आधुनिक संदर्भ भी प्रस्तुत किये जाने लगे हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक पक्ष से अलग उनका एक कला रूप भी है। भागवत उनकी ऐसी कथा है जो भारत के लगभग सभी राज्यों में आंशिक परिवर्तन के साथ प्रचलित है। भागवत सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है, वह जीवन के व्यावहारिक ज्ञान का स्रोत भी है। यही कारण है कि वह लोक कलाओं का आधार भी है। अनेक शास्त्रीय नृत्यों के साथ ही लोक कलाओं में भी भागवत की कथाओं पर आधारित प्रस्तुतियां होती हैं। चिंदु भागवतम ऐसी ही एक नाट्य कला है जो तेलंगाना से शुरु होकर देश के विभिन्न हिस्सों में पहुंच चुकी है। इसका एक नाम विथि भागवतम भी है। मूलतः गांवों में खुले आकाश के नीचे होने वाला यह नाटक आजकल मंच पर भी काफी लोकप्रिय हो रहा है। चिंदु भागवतम मूलतः भागवत कथा को कहने का एक ऐसा रूप है जिसमें नाटक के साथ ही नृत्य और संगीत भी शामिल है। तेलंगाना में इस कला का विकास मडिगा समुदाय ने किया। दक्षिण भारत के राज्यों में प्रचलित कट्टाईकुट्टू, तेरुक्कुट्टू, यक्षगानम आदि लोक नाटकों का आधार भी भागवत ही होती है। इसीलिए इन सभी नाट्य रूपों में समानता भी दिखाई देती है। चिंदु भागवतम को तो यक्षगानम का ही लोक रूप माना जाता है। इसका मंचन बगैर किसी मंच के भी किया जाता है। अक्सर कलाकार किसी गांव में पेड़ के नीचे खुले में इसका प्रदर्शन करते हैं।
मडिगा समुदाय अनुसूचित जाति में आता है, पर वह भी दो भाग में विभाजित है। एक वर्ग 'पेद्दा मडिगा' है जो अपेक्षाकृत उच्च वर्ग का माना जाता है और दूसरा 'चिन्ना मडिगा' जिसे निम्नवर्गीय माना जाता है। चिन्ना मडिगा यक्षगान करते हुए भिक्षा से जीवन यापन करते रहे हैं। इस वर्ग ने चिंदु भागवतम को एक लोकप्रिय नाट्य शैली के रूप में विकसित किया। शुरु में चिंदु भागवतम की प्रस्तुति अपने समुदाय से बाहर करने की अनुमति नहीं थी। पर समय के साथ सामाजिक संरचना में बदलाव आया और दूसरे समाजों, शहरी और ग्रामीण दोनों, में इस नाट्य प्रस्तुति की प्रतिष्ठा बढ़ने के बाद इसका विस्तार हुआ। इतना ही नहीं, मडिगा समुदाय के बाहर के लोग भी इसे मंचित करने लगे। इससे पारंपरिक प्रस्तुति का रूप बदलने लगा। उसमें आधुनिक कथानकों का भी समावेश होने लगा। मडिगा समुदाय धीरे-धीरे कृषि मजदूर बन गया। सरकारी प्रयासों से भी उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आया। सरकार ने इस लोक नाटक को अपने कार्यक्रमों का हिस्सा बनाना शुरु कर दिया। इससे कलाकारों को कुछ आर्थिक राहत मिली। फिर भी उनके सामने हमेशा आजीविका का संकट बना रहता है। इसी कारण अब इसे करने वाले कलाकार कम होते जा रहे हैं। मडिगा समुदाय से बाहर के कई लोग इसे करने लगे हैं। यह सब पेशेवर कलाकार हैं। इसके कारण मडिगा समुदाय के कलाकारों के सामने एक नयी समस्या उत्पन्न हो गयी है। कई मडिगा कलाकारों ने अपनी मंडली बना ली है जिसमें वह नये कलाकारों को प्रशिक्षण भी देते हैं। आज करीब 800 कलाकार हैं जो इस लोक कला को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। तेलुगु में 'चिंदु' शब्द का अर्थ 'छलांग' है। इस नाटक की प्रस्तुति में कलाकार छलांग लगाते हैं, इसीलिए इसका नाम चिंदु भागवतम हो गया। इसमें सुनाई जाने वाली ज्यादातर कहानियां भागवत पुराण से ही होती हैं। चिन्ना मडिगा खुद को जांबा महामुनि का वंशज मानते हैं। इसीलिए वह इस नाटक की शुरुआत जंबा पुराण से करते हैं। इधर कई लेखकों ने इस नाट्य प्रस्तुति के लिए सामयिक विषयों को लेकर भी कथानक रचे हैं। इस नाटक को करने वाले ज्यादातर कलाकार अशिक्षित थे पर अब उनमें से कई ने प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम के माध्यम से अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लिया है। इस नाट्य कला में मेकअप के साथ ही गायन और वादन का भी अत्यधिक महत्व है। अक्सर कलाकार ही सारी भूमिकाएं निभाते हैं। इसलिए प्रत्येक कलाकार को मेकअप के साथ ही वादन व गायन भी सीखना जरूरी होता है। चिंदु भागवतम में मुख्यरूप से हारमोनियम, झांझ और ढोलक जैसे संगीत वाद्ययंत्र बजाने का चलन रहा है। आजकल कई दूसरे वाद्ययंत्रों का प्रयोग भी होने लगा है। सभी चित्र गुगल से साभार

Sunday, April 7, 2024

गोदना : गहना है सदा के लिए

डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज
बस्तर से बर्लिन हो या बोस्टन या फिर मुंबई-बैंगलुरु, या फिर दुनिया का कोई भी शहर, आज हर जगह युवाओं में गोदना यानी टैटू को लेकर जबरदस्त क्रेज है। लोग अपने शरीर पर कभी अस्थाई तो कभी स्थाई टैटू बनवाते देखे जा सकते हैं। शहरी समाज में युवाओं के लिए यह एक फैशन है पर आदिवासी समाजों में यह एक ऐसा गहना है जो एकबार धारण कर लिया तो फिर जीवनभर के लिए यह उनका हो गया। कई आदिवासी समाजों में तो यह मान्यता है कि मरने के बाद परलोक में गोदना ही उनकी पहचान होता है। इसके साथ ही गोदना को बुरी नजर से और बीमारियों से बचाव का तरीका भी माना जाता है। गोदना की प्रथा कबसे शुरु हुई, कोई नहीं जानता पर माना जाता है कि यह उस समय शुरु हुई होगी जब इंसान ने गहने बनाना शुरु नहीं किया था। गोदना के पीछे कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं। एक कहानी यह है कि इसकी शुरुआत शायद आग में जलने के कारण शरीर पर बन गये स्थाई निशान से हुई होगी। एक मान्यता यह है कि इसकी शुरुआत कबीले से लोगों की अलग पहचान स्थापित करने के लिए की गई होगी। अनुमान तो कई हैं पर किसी के बारे में भी ठोस जानकारी उपल्बध नहीं है। यह कला जिस समाज का अभिन्न हिस्सा है उसका अपना कोई लिखित साहित्य नहीं रहा और इसीलिए इसके साक्ष्य भी नहीं मिलते। एक मौखिक परंपरा में गोदना कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती रही। समय के अनुसार इसमें परिवर्तन आये, गोदना के लिए आदिवासी समाजों में मशीनों का प्रयोग होने लगा पर गोदना अनिवार्य है यह भावना समाप्त नहीं हुई। पिछले कुछ समय में शहरों में बस गये आदिवासियों और ग्रामीण समाजों में लोगों ने, विशेषरुप से महिलाओं ने गोदना कराने से इनकार करना शुरु कर दिया है। यह अलग बात है कि उसकी आधुनिक शैली के रूप में टैटू का प्रचलन तेजी से बढ़ा है।
दुनिया के लगभग सभी आदिवासी समाजों में गोदना की परंपरा पाई जाती है। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साथ ही समाज में निचली श्रेणी की जातियों में गोदना की परंपरा है। समाज के उच्चवर्ग में गोदना का प्रचलन बहुत कम देखा जाता है। गोदना का काम पुस्तैनी है यानी एक परिवार के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी यह काम करते हैं। ज्यादातर आदिवासी समाजों में महिलाओं के शरीर पर अधिक गोदना होता है। उनके चेहरे, हाथ, पीठ, पांव आदि पर गोदना कराया जाता है जबकि पुरुषों में केवल हाथ पर गोदना का चलन अधिक है। गोदना का काम आमतौर पर सर्दियों के मौसम में किया जाता है ताकि गोदना से होने वाली पीड़ा का कम अहसास हो।
झारखंड के आदिवासियों में छोटी उम्र में ही गोदना करने की परंपरा है। यहां गोदना को खोदा कहा जाता है। खोदा यानी खोदना। गोदना के लिए त्वचा को एक तरह से खोदा जाता है चाहे वह मशीन से हो या सुइंयों से। यहां बारह वर्ष की उम्र में ही लड़कियों के शरीर पर गोदना कर दिया जाता है। झारखंड के आदिवासी समाजों में पुरुष अपनी बाई कलाई पर कपड़ा रखकर उसे जलाते हैं। इससे हाथ पर उतने हिस्से पर एक निशान बन जाता है जिसे सीखा कहा जाता है। कई आदिवासी समाजों में लोग अपने हाथ पर अपना नाम गुदवाते हैं। बच्चों के हाथों पर नाम गुदवाने की प्रथा आदिवासियों के साथ ही ग्रामीण समाज में भी रही है। नाम के साथ फूल या पक्षी की आकृति गोदने की परंपरा भी देखी जा सकती है। बहुत से लोग अपने नाम के साथ सूरज, चांद, तारा जैसे चिह्न भी गुदवाते हैं। झारखंड के आदिवासी समाजों में ही यह मान्यता है कि मरने के बाद गोदना दूसरी दुनिया में व्यक्ति की पहचान बनता है। झारखंड के जीतपुर के मांझी हड़ाम साहेबलाल मरांडी गोदना को लेकर एक अलग कहानी बताते हैं। उनके अनुसार मुगल काल में स्त्रियों को बुरी नजर से बचाने के लिए उनके शरीर पर गोदना गोदवा दिया जाता था ताकि वह कुरूप लगे तथा उसकी अस्मत बची रहे। कई आदिवासी समाजों शादी से पहले लड़की के शरीर पर गोदना कराना जरुरी है।
आदिवासी समाजों में गोदना के रूप में अलग-अलग प्रतीकों का चलन है। रांव जनजाति की महिलाएँ अपने माथे पर तीन रेखाएं गुदवाती हैं। भील महिलाएं दोनों आंखों के किनारे पर पक्षी जैसा गोदना कराती हैं जिससे उनकी पलकें लंबी दिखाई देती हैं। भील समाज में पक्षी के साथ ही बिच्छु की आकृति गुदवाने की भी परंपरा है। कई समाजों में ज्यामितीय आकार, फूल-पत्ते, सूरज-चांद, मोर, हाथी, घोड़ा आदि गुदवाने की परंपरा देखी जाती है। अफ्रीका के कई आदिवासी समाजों में पूरे शरीर पर गोदना की प्रथा चलन में है। एक समय था जब गोदना का चलन केवल आदिवासी समाजों और पिछड़ी जातियों में ही था। उच्च वर्ग की जातियों में इसे स्वीकार नहीं किया जाता था पर अब समय बदल गया है। उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात आदि में ग्रामीण क्षेत्रों में पिछड़ी जाति के युवाओं, विशेषरूप से महिलाओं ने गोदना गुदवाने से इनकार करना शुरु कर दिया है। इसके विपरीत महानगरों में आज युवाओं में गोदना के आधुनिक रूप टैटू का चलन बढ़ रहा है। गोदना स्थाई होता है पर टैटू ज्यादातर अस्थाई होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गोदना कला अब जंगलों से निकल कर शहरों तक पहुंच गयी है।

Sunday, June 25, 2023

एक संपूर्ण कलाकार गिरीश कर्नाड। लेखक वेद प्रकाश भारद्वाज

कृष्णा बाई एक अस्पताल में नर्स थीं। वहीं एक दिन उनकी मुलाकात डॉक्टर रघुनाथ कर्नाड से हुई। यह मुलाकात प्रेम में बदल गयी पर इस प्रेम की राह में रोड़ा बना समाज और उसकी परंपराएं। कृष्णा बाई उस समय विधवा थीं और एक विधवा की शादी समाज को स्वीकार नहीं थी। पर प्रेम करने वाले कहाँ समाज की परवाह करते हैं। पांच साल तक उनका संघर्ष चलता रहा, और पांच साल बाद वह शादी के बंधन में बंध गये। यह कहानी है गिरीश कर्नाड के माता-पिता की। ऐसी फिल्मी कहानी वाले माता-पिता का बेटा आगे चलकर खुद भी नाट्य लेखक, कवि, अभिनेता, फिल्म निर्देशक और पटकथा लेखक के रूप में मशहूर हुआ, इसमें कोई अनहोनी नहीं है। गिरीश कर्नाड अपने माता-पिता की तीसरी संतान थे। 19 मई, 1938 को महाराष्ट्र (उस समय बॉम्बे प्रेसिडेंसी) के माथेरान में हुआ। बचपन से ही गिरीश ने रंगमंच की राह पकड़ ली थी। वह उस समय घुमंतु नाटक मंडलियों के साथ काम करने लगे थे।
गिरीश कर्नाड का परिवार बाद में धारवाड, कर्नाटक चला गया। वहीं उनकी उच्च शिक्षा हुई। गणित और सांख्यिकी में स्नातक करने के बाद वह 1960 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ने चले गये। वहां से उन्होंने दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र में मास्टर डिग्री प्राप्त की। पर इस बीच वह एक सशक्त नाटक लेखक के रूप में स्थापित हो चुके थे। 1961 में आये उनके नाटक ययाति ने उन्हें मशहूर कर दिया था। फिर 1964 में आया उनका नाटक तुगलक जो आधुनिक नाटक लेखन का मानक बन गया। इंग्लैंड से लौटकर उन्होंने चैन्नई में ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस में नौकरी कर ली। पर उनका मन तो लेखन और रंगमंच में लगता था। 1970 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्थानीय शौकिया थिएटर समूह, 'द मद्रास प्लेयर्स' में शामिल हो गए। नाटक लिखना और अभिनय करना ही अब उनका जीवन था। 1971 में उनका एक और नाटक 'हयवदन' प्रकाशित हुआ। यह थॉमस मान के 1940 के उपन्यास 'द ट्रांसपोज़्ड हेड्स' की थीम पर आधारित था। 1988 में, उनका एक और नाटक, 'नाग-मंडला' प्रकाशित हुआ जिसे कर्नाटक साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उनके अन्य नाटक अग्नि मट्टू माले (1995), ओडाकालु बिंबा (2006), मदुवे एल्बम (2006), फूल (2012) आदि हैं। नाटक तो उन्होंने कई लिखे पर 1970 में ही उनकी जिंदगी में एक नया मोड़ आया जब उन्हें कन्नड फिल्म संस्कार में अभिनय करने का मौका मिला।
उन्होंने वंश वृक्ष (1971) के साथ अपने निर्देशन की शुरुआत की जिसके लिए उन्हें बी. वी. कारंत के साथ सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। कर्नाड ने कन्नड़ और हिंदी में कई फिल्मों का निर्देशन किया, जिनमें गोधुली (1977) और उत्सव (1984) शामिल हैं। कर्नाड ने कई वृत्तचित्र बनाए हैं। उनकी कई फिल्मों और वृत्तचित्रों ने कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं। उनकी कुछ प्रसिद्ध कन्नड़ फिल्मों में तब्बालियु नीनाडे मगने, ओन्डानोंडू कलादल्ली, चेलुवी और काडू और कनूर हेग्गादिती (1999) शामिल हैं। उनकी हिंदी फिल्मों में निशांत (1975), मंथन (1976), स्वामी (1977) और पुकार (2000) शामिल हैं। उन्होंने कई नागेश कुकुनूर की फ़िल्मों में भी अभिनय किया है, जिसकी शुरुआत इकबाल (2005) से हुई, जिसमें कर्नाड ने क्रिकेट कोच की भूमिका निभाई थी। इसके बाद डोर (2006), 8 x 10 तस्वीर (2009) और आशाएं (2010) आईं। उन्होंने यशराज फिल्म्स द्वारा निर्मित फिल्मों एक था टाइगर (2012) और इसके सीक्वल टाइगर जिंदा है (2017) में भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं।
वह 1974 से 1975 तक फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पूना के निदेशक रहे। 1987 में, वह शिकागो विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर बन कर चले गये। 1988 में वह 'संगीत नाटक अकादमी' के अध्यक्ष नियुक्त किये गये। 2000 से 2003 तक, उन्होंने नेहरू केंद्र के निदेशक और भारतीय उच्चायोग, लंदन में संस्कृति मंत्री के रूप में कार्य किया। अपने नाटकों में कर्नाड ने अक्सर ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं के माध्यम से समकालीन मुद्दों को प्रस्तुत किया। उन्होंने स्वयं अपने नाटकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। उनके नाटकों का हिंदी सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद हुए। उनके नाटकों का इब्राहिम अल्काज़ी, बी. वी. कारंत, एलिक पदमसी, प्रसन्ना, अरविंद गौड़, सत्यदेव दुबे, विजया मेहता, श्यामानंद जालान, अमल अल्लाना और ज़फ़र मोहिउद्दीन जैसे निर्देशकों ने निर्देशित किया। उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया गया और उन्होंने चार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते, जिनमें से तीन सर्वश्रेष्ठ निर्देशक - कन्नड़ के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और चौथा फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ पटकथा पुरस्कार हैं। वह 1991 में दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले "टर्निंग पॉइंट" नामक एक साप्ताहिक विज्ञान पत्रिका कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता थे। गिरीश कर्नाड को अपने पहले ही नाटक से प्रशंसा व पुरस्कार मिलने लगे थे। उन्हें मिले दर्जनों में 1994 में मिला प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1998 में मिले ज्ञानपीठ पुरस्कार और कालिदास सम्मान शामिल हैं जो देश के सबसे अधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार माने जाते हैं। संदर्भ 1.The life at play (Memories), Girish Karnad, Srinath Perur, 2021, Publisher: Fourth Estate. 2.अमर उजाला, 19 मई 2022 3.https://www.filmibeat.com/celebs/girish-karnad/biography.html 4.https://www.theguardian.com/stage/2019/jun/19/girish-karnad-obituary 5.नायक महानायक, नई दुनिया फिल्म विशेषांक, 1992 6.https://www.thehansindia.com/cinema/remembering-girish-karnad-at-lamakaan-537196?infinitescroll=1

Monday, June 12, 2023

Sanjay K. Sahani: absolute bliss of nature, by Ved Prakash Bhardwaj

Many artists in contemporary art are creating the beauty of nature on canvas in their way. Each of these artists has its art language. Some artists create nature with a realistic approach, while some highlight its essence. Dr. Sanjay Kumar Sahni is an artist who explores nature in the language of colors more at the level of emotion than form. It is a delightful experience to see Sanjay's paintings. He transforms nature into an absolute bliss with soft hues of colors. His choice and combination of colors are amazing. They reveal the inner form of nature more than its outer form. Elements of nature, trees and plants, mountains, clouds taking many shapes, flowers, and flowing water of the river, that is, the panoramic views of nature emerge on his canvas and capture the mind of the viewers.
Sanjay admits that nature is the first and final source of inspiration. He does not see or think beyond that. It is difficult for an artist, who is fascinated to explore the beauty of nature, to divert their interest in other subjects because there is unlimited possibility in nature. Sanjay always exploring nature, and each time he finds new aspects and transforms them on canvas. He has got inspiration from the natural environment of a mountainous from local flora and fauna, but flowers are the primary source for his expression. His flowers look like cocoons; cotton buds. Trees on his canvas look like agaric or umbrellas, an umbrella of nature that always protects us. He uses oil color to create the softness and glow of nature.
Giving shape to the beauty of nature on canvas for a long time, Sanjay has brought his art to a point where human presence is visible in it. In his new paintings, Sanjay has given a different expression to man's relationship with nature by incorporating abstract human figures. The structure of the painting is such that human figures appear to emerge from nature. In a way, it is an attempt to establish that nature is the source of man's origin. In this way, Sanjaya indirectly appears to be giving the message that if a man has to maintain his existence, he has to be serious about the existence of nature.
He wants to introduce herself as a Student of art that may be a natural Artist. He says that he is fond of tourism and is highly thankful to his parents for providing opportunities to visit the different hill stations in his childhood. he says that massive mountains loom on the horizon, and high peak with green trees against the soft blue sky is worthy to witness and praise. Nature is equivalent to the material universe, which refers to the phenomena of the physical world and also life in general. Nature is a true beauty as it absorbs all our sorrows, a glorious inspiration, a dreamy place having ultimate treasure and infinite pleasure. Maintaining it is our first moral duty. I dedicate myself to this duty in the form of my paintings. The colorful beauty of mountains and horizons is supposed to spread on the canvas by nature. It is his humble and foremost try to focus these scenarios in paintings. He thinks that his life belongs to his work only. He says that he is dedicated, and as long as he lives. He feels that it is his privilege to do art.
We all artists get opportunities to travel to different places like hill stations and forests, but very few of us think like Sanjay. I always say that nature is the greatest creator. As abstract painters, most artists admit that, but very few try to explore nature. Sanjay always did it and created beautiful paintings. He honesty accepted that he believes that "Nature" is a source of different attractive colors, providing us enormous energy after viewing the most beautiful color of nature. he says that in the studio, he usually thinks over these beautiful scenarios, which are more or fewer sources of his imaginations, and the result of these are the origin of his paintings, that are the mirrors of his ideology and life.

Saturday, June 10, 2023

Sangeeta Kumar Murthy: heartbeats of life by Ved Prakash Bhardwaj

Sangeeta Kumar Murthy creates a universe in which the desire to live has wings by establishing the heartbeats of life between the natural and artificial worlds. She blurs the line between the Real world and the world of imagination and focuses to represents a universal life. Sangeeta depicts a world that most people do not experience while living in. In her paintings and sketches, using allegorical symbols, unknown faces, and occasionally a human body without a Face, she tries to capture the deep human sensitivities at the point where living life and experiencing that life intersect. As an artist, Sangeeta has a deep interest in expressing the various stages of human life, including both the physical and mental states. Her paintings show an emotional journey between the physical world. She defines human character and behavior with great precision. She travels to different places to meet people and study their nature, culture, and environment. She minutely studies the psychology of people, their dreams, desires, hopes, and disappointments. Then she converts them into painting, that not only captivates the viewers but also gives them the vision to understand their own lives. To create this vision, Sangeeta often chooses metaphors that are around us. These metaphors include houses, flowers, birds, trees, rivers, and mountains. She places both the natural and the artificial worlds together and establishes the interdependence, rather the inevitability of coexistence, between the two.
Building Dreams was her first series that focused on different structures of buildings and the concept of home. There is a big difference between Building and home. The building is just a structure that converts into a home where people live together. The presence of women in the building structure in this series makes the painting more sensitive. The paintings of this series were multi-dimensional. In these paintings, she presented the interior of any building more realistically, but in its outer environment, she expressed the complexities of life by resorting to abstraction. In this series, she has expressed moods and emotions through attractive structures. Some of the paintings of this series are also good examples of Minimal Art. The pieces in this series exhibit a kind of philosophy and realities of Life. Man has made the world around him big and alluring, yet there is also a sense of lifelessness in some parts of it. To breathe life into the dead structures of the buildings, Sangeeta inserted abstract feminine characters in this series of paintings.
The texture and toner value of colors are her specialty. When she shifted to realistic paintings, in her next series, ‘Verve’, and then ‘Dreams’, texture played a point of attraction. Her figures look simple and situated in a complex environment. The paintings also express the contrary condition in the life of a woman. The human figure is just a symbol like buildings, flowers, and other motifs to convey the thought. The articulation of figures and buildings gives a new dimension to her creation. It will be more powerful when she works on ‘Rhythm of Life’ popular series of her. in that she depicts emotions and the journey of life through the dancing movements of the feet. Vibrant colors and flowers with background textures play a significant role in this series. All paintings are so joyful and Enthusiastic.
From Rhythm of Life, she progressed to Spiritual Exploration with a focus on inner life and emotional reality, with the turtles taking Prominence in her paintings. In ancient times, turtles and tortoises were thought to bring good health, longevity, and protection from evil. Turtles in Indian culture also have great significance as Lord Vishnu is said to have taken the form of a Turtle to uphold the earth and its beings and the second avatar Kurma in the Satyuga (Era of Truth).
The Works “Joy of Life” showcases the Inner feeling of all humans to have a successful healthy long life. A turtle has a mythical as well as a moral symbol in the Indian context. In some paintings of that series she mixed her old elements like buildings but in different styles, as well as she uses some patterns and symbols from folk art and creates a bridge between contemporary and folk art.
In her new series Life Within, she appears to be taking her craft further. This series is reminiscent of her Rhythm of Life series in which in many paintings expressed by showing only the feet. In many works of the Life Within series, the faces of human bodies are not visible, but their body postures and the environment around them give a sense of lyrical aliveness. In this series, she has created man-made space and natural space rhythmically in many works. The color scheme of these paintings made on paper and canvas gives a sense of peace. The structure of village houses in some of these paintings emphasizes the importance of simplicity over grandeur, which is completely situated in the natural environment. In her art journey of more than three decades, she always accepted new challenges of new mediums and subjects for expression. Refusing to be bound by any genre, She has preferred to work according to the subject. In the history of world art, we find examples of many such artists including Picasso who changed their style for effective expression because only by doing this the art remains dynamic. Sangeeta has also maintained dynamism in her art by breaking inertia. For this, she has shown the courage to leave her popular series and work on a new subject in a different style, which is seen in very few artists.

Tuesday, June 6, 2023

Ragini Sinha: expression of human aspirations and freedom by Ved Prakash Bhardwa

As an artist, I have come to love freedom – freedom of which the kite is a dynamic symbol in my creation. -Ragini Sinha
As an artist, we learn a lot from our environment and take many inspirations from it, but it is rare that an artist continuously transforms seemingly ordinary things from his environment into an all-time multidimensional expression of life. Ragini Sinha is one artist who has always turned an ordinary experience into an extraordinary one. Through symbols, he has presented a different perspective of looking at life in his art. That's why in his paintings, the simple-looking mushroom becomes a symbol of the birth of hope, while the kite becomes an expression of human aspirations and freedom. Starting her journey from a small town in Bihar, India, Ragini Sinha is today a well-known name in the contemporary art world of the country. When I ask her why she chose 'mushroom' as a motif, she explains that she finds a mystery in it. The quest to understand the mystery and reality of life inspired him to explore new expressions in art.
He has always welcomed new challenges in his artistic journey. He never hesitated to adopt new subjects as well as new mediums, insted he has been getting a different kind of thrill about new mediums. She says that when she was studying in college, most of the girls were not particularly interested in graphic arts. Painting is easier than doing graphics, but it has a different kind of beauty. I started doing graphics (print making) in college. The texture quality in the graphics as well as working with different hues in the same color was a challenge. I accepted this challenge. At that time I did a lot of work in graphics, but after coming to Delhi, I left it because I did not have the facility to do graphics here. Ragini Sinha stopped doing graphics after coming to Delhi but she started bringing the texture quality of graphics to her paintings. As a result of this, a new dimension started appearing in his paintings. Along with the original subject, he started adjusting the texture in the background in such a way that a new aura was added to the painting. She breaks the flatness in the picture and takes it to multi-meaning images.
His paintings are emotionally powerful. Whether he paints mushrooms or kites, or images of women, they all aim at the expression of feelings and emotions. She portrays the most beautiful aspects of human life to add something beautiful to the lives of those who see her art. After coming to Delhi, there was a different world in front of Ragini Sinha, the crowd all around, and the odd condition of the woman in that crowd. The condition of women in a modern and educated society was worse than that of an uneducated society. She picks up the brush and starts a new series focusing on women's lives. Even in the worst condition of a woman, which is her powerful side, to save and decorate life, to give it a new light with feelings and emotions, Ragini starts taking it in her pictures. The canvas of his canvas starts expanding and birds, flowers, leaves, etc. start appearing in it. Instead of being descriptive, she starts saying her point in a more effective way in a symbolic form. From here comes a new twist in his art, to create a new sense of life on the level of art. She has been giving importance to positivity in her art since the beginning, which has now become more vocal.
This positive outlook helps him enter a new world of thought and creation, which is reflected in his Udaan series of paintings. Flying like a kite freedom and passion started touching the new sky of expressions on his canvas.
When we fly a kite in the sky, we feel free in the same way, we enjoy its rhythmic movement; We feel like a bird and feel that we touch the sky. We understand that not all feelings and fantasies are true, but that feelings and fantasies make life enjoyable. Ragini wants to touch new heights of creation but the human form is not enough for her. She then chooses a different form which is flying in the boundless sky, a canvas for Ragini also a sky where she wants to fly with her fantasies and desires. Kite can fly in the sky but it is controlled by hands through a thread. Ragini has a great command over technique and knows very well how to fly her painting like a kite. The compassion, the color scheme, and use of negative and positive space, and the use of texture reflect his quality. Another turning point I would like to highlight in her art is that she blends traditional art with modernity. She uses certain motifs and designs of folk art in some of the paintings. She hails from a state that has a great tradition of folk art, which enriches her creations.
Another new dimension was added to his art when he started making the tradition of Madhubani and Mithila painting a part of contemporary art. The use of motifs and patterns of folk art is visible in many of his recent paintings. This is not just a method of decorating the picture but an initiative to save and carry forward our tradition. She believes that we can get true Indian art only by the coordination of folk and modern art.